छोटी-सी थी खुशी और हरदम खुश रहती थी। इसीलिए मम्मी ने उसका नाम रखा खुशी खुशी को भी अपना नाम बड़ा प्यारा लगता। है। इसीलिए वह खुद तो खुश रहती ही है, दूसरों को भी अपनी भोली बातों और नटखटपन से खुश कर देती है। पर इधर कुछ दिनों से नन्ही खुशी जरा सीरियस है। उसके इम्तिहान पास आ गए हैं, इसलिए वह सब कुछ छोड़कर पढ़ाई-लिखाई में लग गई है। अब तो रात-दिन वह अपने होमवर्क की कॉपी लिए कभी उस पर गिनती लिख रही होती, कभी पहाड़े, कभी क, ख, ग, और कभी ए – बी-सी-डी-ई। मम्मी को बड़ा अजीब लगता कि नन्ही खुशी पढ़ाई-लिखाई में इतनी सीरियस हो गई! इतनी ज्यादा सीरियस कि पढ़ाई के अलावा बाकी सारी चीजें भूल ही गई।
मम्मी जो कुछ बनाकर देतीं, झटपट खा लेती और फिर से पढ़ाई में लग जाती। उसने सोच लिया था, इस बार मुझे अपने क्लास में अव्वल आकर दिखाना है, ताकि लोग कहें, ‘देखो, नन्ही खुशी कितनी होशियार है। इस बार इसका एक भी नंबर नहीं कटा। पूरे में पूरे नंबर आए हैं।’ आखिर दस दिन बाद खुशी के इम्तिहान खत्म हो गए। अब तो फुर्सत थी, छुट्टियाँ ही छुट्टियाँ! खुशी जमकर उछली-कूदी और नाची। नाचते-नाचते वह लॉन में गई तो पेड़ों ने फूलों ने और फूलों पर उड़ती रंग-बिरंगी तितलियों ने हँसकर कहा, “हैलो खुशी, कैसी हो? बड़े दिनों बाद इतना खुश देखा है तुम्हें। रोज इतनी ही खुश रहो तो कितना अच्छा लगेगा हमें भी।” इस पर खुशी बोली, “अरे, मेरे पेपर थे ना! तो जरा पेपर की तैयारी तो जमकर करनी ही होती है। इस बार मेरे सारे सवाल सही। देखना पूरे में पूरे नंबर आएँगे।” कहते-कहते खुशी का ध्यान गुलाब के फूल पर बैठी काले रंग की तितली की ओर गया।
अरे वाह! काली तितली और इतनी सुंदर! … और फिर खुश-खुश भी कितनी है। लगता है, जैसे हँस रही हो! खुशी ने सोचा। “और क्या हँसँगी नहीं? तुम बातें ही ऐसी मजेदार करती हो।” कहकर काली तितली बड़े जोर से हँस दी। फिर बोली, “आओ खुशी, दौड़ें।” सुनकर खुशी दौड़ी, वाकई दौड़ पड़ी। आगे-आगे काली तितली, पीछे-पीछे खुशी। खुशी बड़ी तेजी से दौड़ रही थी और उसे लगता, “लो जी लो, ये पकड़ा मैंने काली तितली को!” मगर तितली भी कम न थी। वह उड़कर यहाँ से वहाँ बैठ जाती, वहाँ से वहाँ। कभी गुड़हल के लाल सुर्ख फूल पर तो कभी चंपा – चमेली और बेला – मोगरा के सफेद फूलों की कतार पर। खुशी खूब दौड़ी, उछली – कूदी, मगर तितली ने उसे खूब छकाया। न उसे पकड़ में आना था और न आई। और फिर खुशी जब घास की लॉन पर बैठी – बैठी सुस्ता रही थी, तितली ने उसे ‘बाय’ किया और यह जा, वह जा। खुशी सोच रही थी, अब क्या करूँ? अच्छी-अच्छी धूप खिली थी और उसका खेलने का मन कर रहा था। तभी उसकी सहेली मीनू आई। बोली, “चल खुशी, गेंद खेलें।” मीनू के पास सुंदर-सी हरे रंग की गेंद थी। खुशी झट उसके साथ खेलने चल दी। झूला पार्क में जाकर दोनों देर तक खेलती रहीं। गेंद टप्पा खाकर कभी इधर जाती, कभी उधर। दोनों सहेलियाँ उसे पकड़ने दौड़तीं। जिसके हाथ वह गेंद आ जाती, उसका एक नंबर बढ़ जाता। कभी खुशी जीतती तो कभी हारती, पर हारने पर खुशी का मन उदास हो जाता। उसे हारने की आदत जो नहीं थी। आखिर खेलते-खेलते मीनू के चार प्वाइंट ज्यादा हो गए। खुशी कुछ उदास हो गई। उसकी आँखों में मोती जैसे आँसू झिलमिला उठे। इस पर मीनू बोली, “देखो खुशी, यह तो अच्छी बात नहीं है। अब हार गई हो तो रो रही हो। तब तो मैं ही झूठी – मूठी हार जाती हूँ, ताकि तुम हँसो, हँसती रहो।” खुशी ने झट आँसू पोंछ लिए।
बोली, “मैं रो कहाँ रही हूँ?” “और क्या, रो ही तो रही हो!” मीनू बोली, “इसका मतलब तो यह है कि तुम चाहती हो, खाली तुम जीतो, कोई और नहीं। अब मैं समझ गई, सब चाहे तुम्हें कुछ भी कहें, मगर तुम तुनकमिजाज हो।” अब तो खुशी का जोर का रोना छूट गया। इस पर मीनू ने चुप कराने के बजाय उसका और मजाक उड़ाया। अपनी हरी गेंद लेकर हँसते-हँसते बोली, “अच्छा खुशी, अब तू बैठकर आराम से रो, मैं तो अपने घर जाती हूँ।” सुनकर खुशी का मन दुखी हो गया। इतनी चोट तो आज तक उसे किसी ने नहीं पहुँचाई थी। वह कुछ देर उदास – सी झूला पार्क में बैठी रही। फिर चुपचाप अपने घर की ओर जाने लगी। खुशी इतनी उदास थी कि उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। यहाँ तक कि झूला झूलने की भी उसकी इच्छा नहीं हुई। घर जाते हुए भी रास्ते में वह बस मीनू की हरी गेंद के बारे में सोच रही थी। मन ही मन कह रही थी, “देखो कितना घमंड हैं मीनू को अपनी गेंद का! मैं भी आज पापा से कहकर अपने लिए नई गेंद मँगवाऊँगी।” “… पर हाँ, यह बात तो मीनू की ठीक है कि मुझे अपनी हार पर रोना नहीं चाहिए था। खेल में जीत-हार तो चलती ही रहती है। इसमें भला रोना कैसा! यह मेरी गलती है। मुझे मीनू के आगे सॉरी फील करना चाहिए।” खुशी यह सोचती हुई जा रही थी कि अचानक चलते-चलते वह चौंक गई। उसे लगा, रास्ते में कोई उसे देखकर हँस रहा है। उसका ध्यान खुद-ब-खुद अपने पैरों के पास गया। वहाँ एक मकई का दाना था, बहुत बड़ा-सा मकई का दाना। एकदम सुनहरा – सुनहरा। वह खुशी को देखकर हँस रहा था। उसकी हँसी इतनी प्यारी और इतनी भोली थी कि खुशी चलते-चलते रुक गई। कुछ देर खुशी खड़ी खड़ी उस गोलमटोल, भोले-भाले मगर शरारती मकई के दाने को देखती रही। फिर बोली, “अरे-अरे, तुम हँस क्यों रहे हो मकई के दाने?” इस पर मकई का दाना और भी जोरों से हँसा, खुदर – खुदर…खुदर खुदर! खुशी को बड़ी हैरानी हुई। बोली, “ओ रे ओ मकई के दाने! तुमने बताया नहीं कि तुम हँस क्यों रहे हो…?” “क्योंकि तुम बुद्ध हो, बुद्धू- बिल्कुल बुद्ध!” मकई का दाना फिर हँसा। फिर थोड़ा सीरियस होकर बोला, “तुम तो इतनी बुद्ध हो खुशी कि जरा-सी बात पर रो देती हो। अगर तुम्हारी सहेली मीनू ने मजाक उड़ाया तो इसका मतलब यह तो नहीं कि सारे के सारे लोग बुरे हैं। आओ चलो, मेरे साथ खेलो।” “तुम्हारे साथ…?” खुशी की उदासी एकदम खत्म हो गई। उसे इतनी हैरानी हुई कि मारे खुशी के वह हँसने लगी। फिर बोली, “ओ रे ओ मकई के दाने! भला तुम्हारे साथ मैं क्या खेलूँ?” “अरे, मैं दौड़ तो लगा ही सकता हूँ! तुम क्या मुझे कम समझती हो? खूब तेज दौड़ता हूँ मैं, खूब तेज। आओ, दौड़ो मेरे साथ।” मकई का दाना खिलखिलाकर बोला और झटपट उसने दौड़ लगा दी। साथ ही साथ खुशी भी दौड़ पड़ी। दोनों दौड़ते रहे, दौड़ते रहे देर तक। देर तक मगन होकर खेलते रहे। खुशी पहली बार इतनी तेज, इतनी तेज दौड़ी थी कि एकदम पसीने-पसीने होकर हाँफ रही थी।
पर उसे अच्छा भी लग रहा था। बड़े दिनों बाद वह अपने कमरे से निकलकर पार्क की खुली हवा में आई थी। उसने एक बार फिर मकई के दाने की ओर देखा। वह अब भी उतनी ही शरारत से हँस रहा था और पार्क में बिल्कुल मीनू की हरी गेंद की तरह टप्पे खा रहा था। मजे में उछल और कूद रहा था। मकई के दाने के ये अजीबोगरीब करतब देखकर खुशी भी उछल पड़ी और जोर-जोर से तालियाँ बजाकर हँसने लगी। * कुछ देर बाद खुशी की मम्मी उसे ढूँढ़ते हुए झूला पार्क में आ गईं। वे कुछ परेशान – सी थीं। असल में अभी कुछ देर पहले ही उनका ध्यान गया कि खुशी तो घर में कहीं नजर नहीं आ रही! उन्होंने घर में ऊपर-नीचे, इधर-उधर हर जगह देखा। एक-एक कमरा खँगाल लिया। फिर भी नहीं मिली तो सोचा, शायद झूला पार्क में खेलने आ गई होगी। वाकई झूला पार्क में खुशी थी। खूब खुश थी और मकई के दाने के पीछे-पीछे दौड़ती हुई, उसके करतब देखती, तालियाँ बजाकर हँस रही थी। मम्मी आई तो मकई का दाना न जाने कहाँ लुक-छिप गया। मम्मी ने देखा, खुशी मगन होकर तालियाँ बजा रही है। नाच – गा रही है और उसके चेहरे पर बड़ी लाली और रौनक है। मम्मी ने बड़े प्यार से खुशी का माथा चूम लिया। बोलीं, “आज बड़े दिनों बाद तुझे इतना खुश देख रही हूँ। आज क्या बात है खुशी?” “मम्मी-मम्मी, वो… मकई का दाना!” खुशी के मुँह से निकला। “कौन – सा … कौन – सा मकई का दाना? क्या कह रही है तू?” मम्मी ने हैरानी से खुशी की ओर देखकर पूछा। “अरे, वाकई!” नन्ही खुशी ने हैरानी से देखा, मकई का दाना तो कहीं था ही नहीं। एकदम गायब हो गया था। खुशी ने घर चलते हुए मम्मी को मकई के दाने का किस्सा सुनाया तो मम्मी हँसकर बोलीं, “ओह, मैं समझ गई, तू जरूर कोई कहानी सुना रही है। वरना मकई का दाना भी कहीं गेंद की तरह उछलता कूदता, नाचना और दौड़ता है!” खुशी बिल्कुल समझ नहीं पा रही थी कि वह कैसे मम्मी को बताए कि मम्मी-मम्मी, वाकई मकई का दाना था और अभी-अभी मेरे साथ खूब जोरों से दौड़-भाग रहा था और खेल रहा था। तभी तो आज मैं खुश हूँ। इतनी खुश, इतनी खुश… कि क्या कहूँ! उसने सोचा, अगली बार मकई का दाना आया तो वह उसे मम्मी से जरूर मिलवाएगी।
