भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
मरीन ड्राइव पर समुद्र के किनारे बनी चौड़ी सी नीची दीवार पर समुद्र की तरफ पैर लटका कर बैठा वह सामने दूर क्षितिज तक फैली गहरी नीली अथाह जलराशि को नीचे पड़े बड़े-बड़े पत्थरों से टकरा कर फेनिल झाग में बदलते हुए देख रहा था। शाम के समय समुद्र के किनारे बहुत अच्छा लगता है। चेहरे पर गीली नमकीन हवा की छअन सारी थकान गायब कर देती है। शाम की खूबसूरत सांवली सूरत पर डूबते सूरज का चमकता सुनहरा नारंगी रंग नीले पानी में एक अलग ही जादू पैदा कर देता है। आसमान में अलग-अलग शक्ल के दौड़ते बादलों के बीच उड़ते पक्षियों के साथ उसके सपने भी दौड़ने लगते हैं। समुद्र के किनारे पर नरीमन प्वाइंट से लेकर साढे तीन किलोमीटर के अर्ध चंद्राकार बलेवार्ड पर करीने से लगे पेड़ों की खूबसूरती देखते ही बनती है। यहां बैठकर अलग-अलग उम्र के लोगों को घूमते देखना और बारीकी से उनके हाव-भाव, चाल-ढाल का निरीक्षण करते हुए मन में उनके बारे में अपनी ओर से कहानियां गढ़ने में समय कहां निकल जाता है पता ही नहीं चलता।
शाम होते ही मानो पूरा शहर समुद्र के किनारे आ जाता है। गहराती शाम के साथ ही सड़क के उस पार बने होटलों और ऊंची-ऊंची इमारतों पर रोशनी के जुगनू जगमगाने लगते हैं और सड़क पर फिसलती गाड़ियों की लाल-पीली लाइटों से दमकता बुलेवार्ड सच ही क्वीन्स नैकलेस लगने लगता है। उसे जब भी समय मिलता है शहर की चहल-पहल और शोर-शराबे से भाग कर वह यहां आ जाता है और काफी देर तक बैठा सपने बुनता रहता है उसे यहां बहुत सुकून मिलता है। पहली दफे वो गुरविंदर के साथ यहां आया था। बड़ा जिंदादिल इंसान है गुरुविंदर | हर बात पर पीठ पर हाथ मार कर कहता… “…फिकर न कर पाप्पे..रब दा भरोसा कर…सब चंगा होयेगा…” दीवार से नीचे उतर कर समुद्र के किनारे पड़े पत्थरों पर गले में हाथ डालकर बैठे हंसते-बोलते प्रेमी जोड़े क्या ख्वाब देखते होंगे। ठेलों पर जुटी भीड़ को खाते-पीते देखकर उसके मन में यह ख्याल जरूर आता कि क्या वाकई हर कोई इतना खुश और बेफिक्र है जितना दिखता है? क्या किसी को कोई परेशानी नहीं है? यह मूंगफली वाला, यह भेलपुरी वाला, यह पावभाजी और गुब्बारेवाला…कौन हैं ये सब । क्या किसी को इनकी निजी जिंदगी से फर्क पड़ता है? दिन भर क्या करते हैं कहां से आते हैं, किस जाति, धर्म, पंथ, समुदाय के हैं कोई नहीं जानता। सब कितने मस्त हैं। क्या सभी यहां आकर दूसरों की परेशानियों में थोड़ी देर के लिए अपनी परेशानियों को भूलने का नाटक करते हैं?
वह क्यों नहीं भूल पाता सब कुछ? कितनी कोशिश करता है कि सब कुछ भूल कर जिंदगी में आगे बढ़ जाये, क्या रखा है इन सब बातों में… कितने साल हो गये… पर भूलना इतना आसान है क्या.. आज भी जब याद आता है तो पूरी फिल्म सी चलने लगती है आंखों के सामने । एक जगह आकर रील अटक जाती है..नहीं भूल पाता सड़क पर पड़े अपने मरियल से बाप की खून से लथपथ लाश के खुले हुए मुंह से आती शराब की बू… क्यों बार-बार कौंधती है वह तस्वीर!! मर गया अच्छा हुआ। वह भी तो मन ही मन यही चाहता था कि कब वह मरे और उन सबको छुट्टी मिल जाये | हालांकि उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए था आखिर बाप था उसका। पर अब जब वह मर गया है तो उसे अफसोस है क्या.. नहीं..अफसोस उसके मर जाने का नहीं है बल्कि इस बात का है कि जाते-जाते कम से कम एक अच्छी याद तो छोड जाता! मंह बाये बदब मारती तस्वीर तो नहीं… साली वो आखिरी तस्वीर पीछा ही नहीं छोड़ती। उसके पहले का कुछ क्यों नहीं याद आता…पर पहले का भी तो कुछ याद करने लायक नहीं है। वही गंदगी से पटे पड़े नाले के किनारे बने अहाते में उसके जैसे लोगों के घर…घर क्या मुर्गी के दड़बे… | कूड़े के ढेरों पर बहती नाक लिये नंगे पैर दौड़ते ढेर सारे बच्चे….. और जरा-जरा सी बात पर कुत्तों की तरह किकियाते मरने-मारने को तैयार लोग। जब ठीक से पाल नहीं सकते तो इतने बच्चे पैदा क्यों कर लेते है…ये भी साली क्या जिंदगी है कीड़े-मकोड़ों जैसी…
नहीं भूल पाता मेघना को…मेघना की याद आते ही मुंह कुछ कसैला हो आया । सामाजिक व्यवस्था के सबसे नीचे के पायदान पर खड़ी मेघना भी तो बढ़ गयी थी आगे… वह आगे बढ़ने की जल्दी में थी और आगे आने वाली पीढ़ी के लिए रास्ता बनाना चाहती थी। उसके लिए कितना आसान था ऊपर के पायदान पर खड़े मयंक के बढ़े हाथ को थाम लेना। मयंक ने उसे अपने नाम के साथ जोड़कर ऊपर खींच लिया। अब जब कभी मेघना के नजरिये से सोचता है तो लगता है मेघना ने ठीक ही किया। क्या वह खुद नहीं इस दलदल से ऊपर आने के लिए हाथ-पांव मार रहा है.. और कसक थोड़ी कम हो जाती है पर टीस अब भी बाकी है। अब भी जब सपनों में खोये हुए प्रेमी जोड़ों को देखता है तो मेघना आंखों के सामने आ खड़ी होती है। मेघना का उसके जीवन में आना ठंडी हवा का झोंका-सा था। मन में उठते तूफानों के बीच एक सहारा नाम भी तो था मेघना घुमड़ते बादलों सा… |
उसका बाप कानपुर नगरपालिका में एक टैंपरेरी सफाई कर्मचारी था। नदी-नालों, गली-मोहल्लों की नालियों, सैप्टिक टैंकों की सफाई करता था। पतली संकरी गलियों में जहां मशीनें नहीं जा पाती थीं नालियों के चैंबर में नीचे उतरने के लिए ननकू की चार पसली की मरियल काठी ही काम आती थी। चार पैसे अलग से मिल जाते थे। शहर भर की गंदगी से पटी पड़ी गंगा और उसमें मिलने वाले नालों के भीतर डूबती-उतराती सड़ी लाशों को ढूंढने के लिए गोता लगाना पड़ता था। पहली दफा ननकू जब गंदगी से पटे नाले में गोता लगा कर एक आदमी की बुरी तरह सड़ी गंधाती लाश को बाहर खींच कर बाहर लाया तो सिर से पांव तक काले कीचड़ और गंदगी से इस कदर सना हुआ था कि बाल्टियों पानी डालने के बाद भी शक्ल ठीक से दिख नहीं रही थी। कई दिनों तक उसे लगता रहा कि उसकी नाक और मुंह में कीचड़ भरा हुआ है ठीक से सांस नहीं ले पा रहा है। उसे नदी भीतर खींच रही है निकल नहीं पा रहा है बड़ी मुश्किल से पूरा दम लगा कर बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है। इस सब को भूलने के लिए कच्ची शराब पीकर कई दिनों तक उल्टियां करता रहा।
पर पता नहीं क्या हआ, एक सिलसिला चल निकला गोता लगाता, शराब पीता उल्टियां करता, फिर गोता लगाता शराब पीता और उल्टियां करता किसी बात का होश न रहता। रात दिन नशे में धुत रहता शायद इसी नशे की धुन में वो बिना कुछ सोचे-समझे गंदगी में डुबकी लगाता रहता। नदी नालों में फैक्टरियों और चमड़े के कारखानों से निकलते तमाम कैमिकल्स और गंदगी से बनती गैस के कारण उसे सांस की बीमारी भी लग गयी थी। इस कारण घर पर कलह भी बढ़ गयी थी। बाहर सड़क पर बेसुध पड़ा रहता। आने-जाने वाले लोग भी दो-चार गालियां उछाल देते पर उसे कहां कोई फर्क पड़ता था। होश आने पर गाली-गलौज करता पता नहीं कौन-सा भूत सवार हो गया था उस पर और लोग उसका फायदा उठा रहे थे पैसे का लालच देकर उसे बार-बार उसी नर्क में धकेल देते और शायद वो भी इस नर्क से निकलने के लिए छलांग लगाकर मर जाना चाहता था पर हिम्मत नहीं कर पाता था और दम घुटते ही ऊपर आ जाता था।
इस बार गंगा में गिरते गंदे नाले के कीचड़ में तैरती एक औरत की लाश निकालने के लिए जब ननकू ने गोता लगाया तो लाश के साथ एक गंदगी से लिपटी रंग-रोगन उतरी हुई लक्ष्मी जी की मूर्ती भी निकल आयी। दीवाली के समय लोग पूजा के लिए हर साल गणेश-लक्ष्मी की नयी मूर्तियां लाते हैं और पुरानी मूर्तियों को नदियों में सिरा देते हैं.. हर साल सैकड़ों मूर्तियों का पूजा के बाद यही हश्र होता है। मूर्ति हो या कोई और चीज़ घर से बाहर गयी तो फिर उसका क्या हुआ कोई नहीं सोचता। न जाने ननकू को क्या सूझा मूर्ति को घर उठा लाया। मूर्ति देखते ही छुटके जीतू ने उसे अच्छे से धो-पोंछकर चमका लिया। बस फिर क्या था वह और उसके दोस्त बाहर सड़क पर ।
लगे नीम के पेड़ के चारों तरफ बने चबूतरे पर उस मूर्ति को रखकर पूजा की तैयारी करने में जुट गये। आस-पास से थाली लोटा, फूल-पत्ती इकट्ठा करने लगे और खूब धमाल मचाने लगे। उनके लिए एक नया खेल था। तभी सड़क से गुजरते हुए चंद्रभान ठाकुर जीतू के हाथ में लक्ष्मी जी की मूर्ति देख कर चौंका। ये नयी बात थी। तुरंत उसका कॉलर पकड़ कर बोला…“क्या रे! काहे शोर मचा रखा है, क्या कर रहे हो तुम लोग ! काहे इतनी भीड़ जमा कर रखी है। अरे ये क्या! लक्ष्मी जी की मूर्ति!! मूर्ति कहां से आयी तुम्हारे पास?”
फूल-पत्ती की ओर देखते हुए बोला… “अच्छा तो पूजा कर रहे हो!! साले तेरी ये मजाल कि लक्ष्मी जी की मूर्ति को हाथ लगाये…” जीतू के कान मरोड़ते हुए चंद्रभान चिल्लाया।
चंद्रभान वहीं थोड़ी दूर सड़क के मोड़ पर रहता था। पहले एल्गिन मिल में काम करता था और पुराने कानपुर के बस अड्डे के पास रहता था पर अब काफी समय से मिल लगभग बंद ही है और मिल की नीलामी की बात हो रही है इसलिए बेकार हो गया है और इधर की बस्ती में रहने आ गया है। इस तरफ से ही निकलना होता है।
“बापू को नाले में मिली थी…।” रोते हुए जीतू बोला। उसने दोनों हाथों से कस कर मूर्ति को सीने से लगा रखा था।
मूर्ती को जीत के हाथ से छीनने की कोशिश करते हए चंद्रभान बोला छोड़… छोड़ मूर्ति… बड़े आये पूजा करने वाले…बराबरी करेंगे साले… मालूम है न तुम लोगों को पूजा-पाठ, मंदिर-संदिर जाना सब मना है? पंख निकल आये हैं सालों के। बैठेंगे साले साथ में…..औकात में रहो तुम लोग..नाली के कीड़े हो नाली में ही रहो…चले हैं बराबरी करने… चल दे मूर्ति… ।” जीतू से मूर्ति को और जोर से खींचते हुए चंद्रभान बोला।।
धर-पकड़ और शोर-शराबा सुन कर आस-पास के कुछ लोग इकट्ठा होने लगे। तभी जीतू ने मूर्ति हाथ से छोड़ दी और चंद्रभान झटका खाकर चारों खाने चित्त सड़क पर गिर पड़ा, साथ ही मूर्ति भी सड़क पर गिर कर टुकड़े-टुकड़े हो गयी। गुस्से से लाल-पीले होते हुए चंद्रभान तुरंत उठकर जीतू पर लात-घूसे बरसाने लगा। चारों तरफ हड़कंप मच गया। बाकी बच्चे भाग कर ननकू को बुला लाये।
ननकू शराब के नशे में झूमता बड़बड़ाता हुआ आया और हाथ लहरा-लहरा कर चंद्रभान को गालियां देने लगा। उसकी सांस धौंकनी-सी चल रही थी। बड़ी मुश्किल से खड़ा हो पा रहा था।
चंद्रभान तो वैसे ही गुस्से से भरा बैठा था…..“गाली देता है साले… | मुझे गाली देता है.. बहुत दिमाग चढ़ गया है। अभी उतारता हूं तेरी चर्बी …बहुत शौक है हमारे लोगों की बराबरी करने का.. करो पूजा-पाठ… | जाओ मंदिर… दो जून की रोटी क्या मिलने लगी है अपने आप को राजा समझने लगे हैं…।” और खींच कर झन्नाटेदार थप्पड़ ननकू के गाल पर रसीद दिया।
दुबला-पतला चार हड्डी का ननकू वैसे ही नशे में लड़खड़ा रहा था थप्पड़ पड़ते ही सड़क पर धड़ाम से गिर पड़ा। गिरते-गिरते चबूतरे का कोना उसके सिर पर लग गया और सिर फट गया, सड़क पर खून बहने लगा, धौंकनी-सी चलती सांस खरखराने लगी। हाथा-पाई देखकर मोहल्ले वालों के अलावा राह चलते लोग इकट्ठा हो गये थे और चंद्रभान को घेर लिया। लक्खी भी भागती हुई आ गयी। उसने देखा कि ननकू बिना हिले-डुले सड़क पर मुंह बाये चित्त पड़ा था सिर से खून बह रहा था सांस भी पकड़ में नहीं आ रही थी। हाय-हाय करने लगी। चंद्रभान यह सब देख कर घबरा गया। ऐसा कुछ हो जायेगा उसने नहीं सोचा था। भीड़ में से किसी ने पुलिस को भी फोन कर दिया था। लोग जोर-जोर से घटना को मिर्च-मसाला लगा कर एक-दूसरे को बताने लगे।
पड़ोस में रहने वाला सुरेश दौड़कर उसे स्कूल से बुला लाया। वो सरकारी स्कूल में नौवीं कक्षा में पढ़ता था। जब तक वह पहुंचा ननकू मर चुका था और पुलिस आ गयी थी। उसने देखा कि पुलिस लोगों से पूछताछ कर रही है और उसकी अम्मा पछाड़ें मार रही है। छाती पीट-पीट कर रो रही है। उसे मालूम था कि यह सब नाटक है, अम्मा ननकू के मर जाने पर नहीं रो रही थी उसे फिक्र थी आगे की… | जैसा भी था कुछ पैसे तो घर आते थे। वह तो कब से उसके मर जाने की दुआ कर रही थी कि रोज-रोज के लात-घूसों और गाली-गलौज से छुट्टी मिले। रात-दिन कोसती रहती थी। उसको आता देख और जोर-जोर से रोने लगी। पुलिस केस हो गया था।
चंद्रभान को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। चंद्रभान बैठे-बिठाये मुसीबत में फंस गया था। अब पछता रहा था पर ननकू तो मर गया था। जिस मूर्ति के लिये ये सब नाटक हुआ था उसकी तो दुर्गति पहले ही हो चुकी थी। दुनिया जहान के कीचड़ और गंदगी में उतराती मूर्ति को क्या छूना और क्या न छूना। पुलिस चंद्रभान को पकड़ कर ले गयी। ननकू की लाश को पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज दिया गया।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि अब वो क्या करे। गुस्सा बहुत था मन में.. पर गुस्सा किस बात का.. बाप के मर जाने का! वो तो पहले ही मरा हुआ सा था… चंद्रभान पर…या अपनी स्थिति पर… दिमाग में तमाम प्रश्न उथल-पुथल मचाए हुए थे। वहीं चबूतरे पर कितनी देर बैठा रहा। चंद्रभान पर हत्या का इलजाम लगा। वो कुछ ले-देकर किसी तरह मामले को सुलझाना चाहता था, लक्खी भी जानती थी कि ननकू की नौकरी टैंपरेरी थी और वह काम पर नहीं मरा था, कहीं से कुछ मिलने वाला नहीं और पुलिस चौकी के पच्चीसों चक्कर अलग। और पचास हजार में शराब के नशे में लड़खड़ाते ननकू का सिर अपने-आप चबूतरे से टकरा गया और उसकी मौत हो गयी ऐसी एक रिपोर्ट थाने में दर्ज हो गयी। ठीक ही था ननकू तो वापस नहीं आने वाला था कम से कम कुछ पैसे तो मिले लक्खी को। उसको समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे क्या न करे। कुछ लोग उसे ननकू की जगह काम पकड़ लेने की सलाह दे रहे थे। लक्खी भी शायद मन में यही सोचने लगी थी। रोजी-रोटी का सवाल था। बीच-बीच में लक्खी भी काम पकड़ने के लिये कहने लगी थी।
कई दिन ऐसे ही निकल गये। घर बाहर कहीं मन नहीं लगता था स्कूल में भी नहीं हालांकि ज्यादातर बच्चे इन्हीं बस्तियों से उसके जैसे ही फटेहाल और पिछड़ी जाति के थे पर उसमें भी ऊपर-नीचे था। वैसे भी सरकारी स्कल की क्या पढाई। उसका मन पढाई में बिल्कल नहीं लगता था, दो साल से फेल हो रहा था… यार-दोस्त भी वैसे ही आवारा नाकारा। स्कूल तो वह घर की किचकिच से बचने के लिए आता था अब ये नयी समस्या । जितना सोचता उतना परेशान होता। उसे लगने लगा कि यहां रहेगा तो उसका कुछ नहीं हो पायेगा इन्हीं कूड़े के ढेरों पर दोस्तों के संग सुट्टा लगाते इसी दलदल में डूब जायेगा। वह किसी हाल में ननकू नहीं बनना चाहता था पर रह-रह कर ननक उसकी आंखों के सामने आ जाता। उसे यहां से निकलना ही होगा। इतना उसने कभी नहीं सोचा था पर ननकू के मरते ही रात-दिन उसके दिमाग में यही सब घूमता रहता जितना सोचता उतनी उलझन बढ़ती जाती।
इसी उलझन में एक दिन वह घर से भाग कर मुंबई की ट्रेन में बैठ गया । बहुत नाम सुना था सपनों के शहर मुंबई का | मुंबई शहर पास आ रहा था डिब्बे में हलचल बढ़ गयी थी लोग सामान निकाल–निकाल कर दरवाजे पर लगाने लगे थे। उसकी धड़कन बढ़ रही थी। काफी लोग बीच-बीच में उतरते गये, दादर तक आते-आते डिब्बा लगभग खाली हो गया। अंतिम स्टेशन विक्टोरिया टर्मिनस पर गाड़ी रुकते ही ट्रेन से उतरते यात्रियों और उन्हें लेने आने वाले लोगों की भीड़ देख कर उसकी हवा निकल गयी। उसे लगा कि वह किसी बहुत बड़े मेले में आ गया है। हर पांच मिनट में एक ट्रेन आती सैकड़ों लोग उतरते और मिनटों में इस शहर में न जाने कहां गायब हो जाते। वो आ तो गया घर से भाग कर पर अब इस अनजान जगह में क्या करे, कहां जाये कुछ समझ नहीं आ रहा था। ट्रेन से उतर कर प्लेटफार्म पर पड़ी बेंच पर बैठा आती-जाती भीड़ को देखता रहा। रात होते ही चुपचाप सीढ़यों के नीचे एक कोने में दुबक गया। दो-तीन दिन तो यूं ही स्टेशन पर लेटे-बैठे गुजार दिये। कई बार तो ट्रेन से उतरने वाले मुसाफिरों का सामान भी उठाया पर स्टेशन पर कितने दिन रहा जा सकता था। बाहर तो निकलना ही पड़ेगा और कुछ काम भी ढूंढना पड़ेगा। एक बार मन होता वापसी की ट्रेन पकड़ ले। पैसे भी नहीं थे। फिर हिम्मत करके स्टेशन से बाहर निकला कि अब जब आ ही गया है तो वापस जाने से पहले शहर का कुछ मुआइना तो किया जाये। स्टेशन से बाहर निकलते ही उसकी भव्य इमारत और आस-पास की बड़ी-बड़ी इमारतें, चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर गाड़ियों की कतारें और भागते लोगों को देख कर सिर चकराने लगा। पूरे दिन धूप में भूख-प्यास से बेहाल इधर-उधर घूमता रहा फिर वापस स्टेशन पर आकर एक कोने में सो गया।
काम तो ढूंढना ही था, कब तक ऐसे चलेगा। दूसरे दिन फिर आस-पास की छोटी-बड़ी सभी दुकानों, होटलों में काम के लिए पूछते शाम हो गयी। सड़क पर चलता हर आदमी कितना चुस्त-दुरुस्त और व्यस्त नजर आता। कानपुर भी कोई छोटा शहर नहीं है पर यहां कुछ तो खास है। यहां पान की दुकानों, गुमटियों, पुलियों पर बेवजह गप्प मारते, टाइम पास करते हुए लोग नहीं दिखाई देते। यहां हर आदमी जल्दी में है किसी न किसी चीज में लगा है। एक वही है जो बेकार है। इस प्लेटफार्म से उस प्लेटफार्म पर जगह बदलते दस दिन हो गये। हर सुबह एक उम्मीद लेकर आती और शाम होते-होते उम्मीद कहीं किसी कोने में दुबक जाती। हिम्मत जवाब देने लगी थी। कई दिनों तक भटकने के बाद एक उडिपी होटल में काम मिला जहां सुबह से देर रात तक बर्तन घिसते और सफाई करते-करते थक कर चकनाचूर हो जाता। उस पर तेल-मसाले से महकते तमाम सामान से अटे पड़े किचन के गंदे फर्श पर सोते उसे ऐसा लगने लगा जैसे वह एक दलदल से निकल कर दूसरे में फंस गया है। रोना आने लगता और बार-बार वापस लौट जाने का ख्याल आता। सोचता अगर बस खाना और सोना ही जिंदगी का मकसद है तो कानपुर क्या बुरा है। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। कहीं कोई और ठिकाना नहीं था, न ही समय मिल पाता था कि कहीं कुछ और तलाश करे।
तभी उसकी मुलाकात हेमंत जाधव से हुई जो वहीं पास की एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान में सेल्समैन था चाय पीने होटल में आता था। बात-बात में पता चला कि वो भी तीन साल पहले अहमदनगर के पास छोटे से गांव जाधववाड़ी से काम की तलाश में मुंबई आया था और मुंबई में पांव जमाने की कोशिश में लगा हुआ है। यह नौकरी उसके चाचा ने दिलवायी थी। कुछ महीनों वह अपने चाचा के साथ परेल में ही रहा था। सालों की मशक्कत के बाद बड़ी मुश्किल से बस दो वक्त की रोटी ही जैसे-तैसे जुट पाती है, सिर पर छत का जुगाड़ करना संभव नहीं है। वो भी कहीं दूसरी अच्छी जगह काम तलाश रहा था। मीरा रोड पर एक कमरे में चार लोगों के साथ शेयरिंग में रहता था। दोपहर में या दुकान बंद होने के बाद कभी-कभी वे दोनों मिल लेते। हेमंत की दोस्ती ने इतने बड़े शहर में उसे बड़ा सहारा दिया। कुछ महीनों के बाद हेमंत ने उसे पास ही एक प्रिंटिंग प्रेस में हेल्पर की वैकेंसी के बारे में बताया। पैसे बहुत कम थे क्योंकि उसे कोई अनुभव नहीं था। रहने और खाने की समस्या अलग जो उतने पैसों में पूरी नहीं हो सकती थी। बड़ी कशमकश में था कि क्या करे। यहां से निकलना भी चाह रहा था। यहां होटल में जैसा भी हो कम से कम खाने और मुंह छिपाने के लिए जगह तो थी।
उसकी परेशानी देखकर हेमंत ने सुझाया कि वह कुछ समय तक उसके मकान में शेयरिंग में रह सकता है उसके दो रूममेट्स रात पाली में काम करते हैं… छुट्टी वाले दिनों को छोड़कर वे दिखाई नहीं देते। वे रात में खाने के अपने डिब्बे तैयार करके उन दोनों के लिए खाना बना कर जाते हैं और हेमंत और दूसरा साथी विवेक उन दोनों के लिए दोपहर का खाना बना कर रख जाते हैं…गुरविंदर अमृतसर का था किसी ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करता था। वह मंदिर, मस्जिद जाता था और सुदीप्त आसनसोल का था वहीं मीरा रोड में बालाजी इंडस्ट्री के पैकेजिंग डिपार्टमेंट में काम करता था। मकान का किराया और खाने का खर्च चारों शेयर करते थे। सुनकर उसे अच्छा भी लगा पर डर भी लगा कि उसके बारे में मालूम पड़ने पर पता नहीं उनका क्या रिएक्शन हो। झिझकते हुए उसने हेमंत को अपने बारे में सब बताया कि कहीं उसके साथ रहने और खाने से किसी को दिक्कत तो नहीं होगी। हेमंत ने उसे तसल्ली दी कि इन सब बातों का यहां कोई मतलब नहीं है। कोई चिंता नहीं करता कि कौन क्या है, कहां से आया है, क्या करता है। न ही किसी से कोई कुछ पूछता है। देश के हर कोने से लोग आंखों में सपने लिये यहां आते हैं इसीलिए तो इसे सपनों की नगरी कहते है… यही इस शहर की खूबसूरती है कि हर कोई अपने से मतलब रखता है। सब लोग कुछ न कुछ पाने के लिए दौड़ रहे हैं… वैसे अगर वह न बताता तो किसी को क्या पता चलता, पर हेमंत से वह कुछ छिपा नहीं सकता था। इस शहर में वही था जिसका उसे सहारा था।
उसके मन में चलते दंत को शांत करने के लिए कुछ महीनों बाद गणेशोत्सव के समय हेमंत उसे एक बड़े सार्वजनिक पूजा पंडाल में ले गया जहां मीलों लंबी लाइन में लोग भगवान के दर्शन के लिए खड़े थे। उसे डर लग रहा था कि अभी कोई आयेगा और धक्के देकर उसे लाइन से निकाल देगा। पर कहीं कोई कुछ नहीं पूछ रहा था । हेमंत उसका हाथ अपने हाथ में लिए उसे तसल्ली दे रहा था। हेमंत का हाथ थामे पहली दफे उसे बराबरी का एहसास हुआ और थोड़ी हिम्मत आयी। पर त्योहार खत्म होते ही मूर्तियों के विसर्जन के बाद के दिनों में समुद्र के किनारे, छोटे-छोटे तालाबों और जलकुंडों में उतराती मूर्तियां, कीचड़, प्लास्टिक, पूजा के फूल पत्तियां देखकर अचानक कीचड़ से निकाली लक्ष्मी जी की मूर्ति फिर आंखों के सामने आ गयी और उसके साथ ही जमीन पर पड़ी मरे हुए बाप की मुंह बाये लाश उसे उसकी असलियत के निकट ले आयी।
रात भर सोचने के बाद उसने प्रिंटिंग प्रेस में काम पकड़ लिया आखिर कुछ तो हिम्मत करनी ही पड़ेगी ऐसे तो वह यहीं अटका रह जायेगा। दूसरे दिन हेमंत के साथ मीरा रोड पर रहने चला आया। काफी पुरानी सी बिल्डिंग के चौथे माले पर स्थित उसका घर स्टेशन से काफी दूर था। स्टेशन तक आने-जाने में लगभग पंद्रह से बीस मिनट लग जाते थे। और कोई चारा नहीं था। उसने भी लोकल का पास बनवा लिया। पहले दिन ही लोकल पकड़ने वालों की भीड़ देखकर उसके छक्के छुट गये वापसी पर तो और बुरा हाल था, कैसे डिब्बे में चढ़ा और कैसे उतरा उसे पता नहीं अगर हेमंत साथ नहीं होता तो शायद वह ट्रेन में चढ़ भी न पाता| घर से काम तक आने-जाने में लगभग ढाई से तीन घंटे लग जाते और प्रेस में भी बहुत काम रहता। बहुत थक जाता था। हेल्पर होने के नाते हर किसी की सहायता करनी पड़ती। कागजों के भारी-भारी बंडल उठाना, कभी मशीन पर प्रिंट हो रहे कागजों के बीच-बीच में पेपर डालना, कटिंग मशीन पर कटिंग करना, बाइंडिंग से लेकर पैकिंग और डिलीवरी भी। इसके अलावा भी इधर-उधर के बहुत से छुटपुट काम रहते।
वापसी की लोकल ट्रेन में बुरी तरह छूटे हुए पसीने से लथपथ थके-हारे लोगों के बीच खड़े-खड़े महीनों सफर करते हुए उसके दिमाग में उडिपी होटल के किचन की तेल-मसालों की महक और ट्रेन की भीड़ के पसीने की बदबू गडमड होने लगती। भागती लोकल के बाहर बाउंड्री से सटी मीलों तक पसरी काले, नीले प्लास्टिकों से ढकी झुग्गियां उसकी आंखों के सामने घूमती रहती… लोकल की दमघोंटू भीड़ में घंटों बिना हिले-डुले जिराफ की तरह गर्दन ऊंची करके सांस लेने की कोशिश करते हुए वह सोचता कि ये कहां फंस गया है। उसे लगता वह बाहर निकलने के लिए घबरा कर हाथ-पांव मार रहा है पर बाहर नहीं आ पा रहा है। दलदल में फंसा है अपने बाप की तरह, अजीब छटपटाहट होती इस स्थिति से बाहर आने के लिए। शायद उसके बाप ने भी अपनी परिस्थिति से बाहर आने के लिए इसी तरह हाथ-पैर मारे होंगे और अपनी बदहाली से तंग आकर दलदल में छलांग लगा दी थी।
नौकरी मिल जाने पर एक महीने की तनख्वाह और हर महीने एक हजार रुपये एजेंसी को देते रहने की शर्त पर हेमंत और उसने नौकरी दिलवाने वाली एक एजेंसी में अपना नाम रजिस्टर करवा लिया। दीवारों और बिजली के खंभों पर चिपके नौकरी दिलवाने वाले तमाम इश्तेहार देख कर तो ऐसा लगता था जैसे नौकरियां बस यूं ही रखी हैं, और वाकई काम के मौकों की कमी नहीं, छोटे-बड़े अच्छे बरे हर तरह का काम है यहां मुंबई में, करने वाले की इच्छा पर है। बड़े शॉपिंग मॉल्स, होटलों, शोरूम्स । कंपनियों में काम के लिए कम से कम दसवीं बारहवीं पास और स्मार्टनेस के साथ अंग्रेजी बोलना आना जरूरी शर्त थी। हेमंत बारहवीं पास था पर अंग्रेजी में मात खा जाता था अब थोड़ा खुलने लगा था। वह सोच रहा था कि किसी फ्लाईओवर के नीचे डेरा डाल कर पेट तो बोझा ढो कर भी भरा जा सकता है। कितने महीने यूं ही गुजर गये। वे दोनों चाहते थे, कहीं घर के पास काम मिल जाये तो अच्छा इतनी दूर आने-जाने में बहुत थकान हो जाती है…
कुछेक जगह एजेंसी ने भेजा भी तो कहीं पैसा बहुत कम तो कहीं इतनी दूर कि बंदा आने-जाने में ही पस्त हो जाये कुछ और सोचने का समय ही नहीं मिलता था। दोनों लोकल में आते-जाते बड़ी-बड़ी ऊंची इमारतों और शापिंग मॉल्स को देखकर उनके भीतर घूमते लोगों की जिंदगियों की कल्पना करते, सोचते ऐसी ही किसी अच्छी एयरकंडीशन्ड जगह पर काम मिल जाये तो कितना अच्छा हो। गुरविंदर आठवीं पास था पर बड़ा स्मार्ट चलता पुर्जा था। उसका काम भी वैसा ही था। विवेक प्लंबर था वहीं थोड़ी दूर पर एक नये बन रहे हाउसिंग कॉम्पलैक्स में उसका काम चल रहा था। विवेक ने उसी जगह उसको नाइट वाचमैन के काम पर लगवा दिया। रात आठ बजे से सुबह आठ बजे तक बारह घंटे की ड्यूटी। उसने प्रेस का काम छोड़ दिया।
लोकल ट्रेन की भीड़भाड़ से तो छुट्टी मिली पर रात की ड्यूटी बड़ी भारी थी। साइट पर दिन भर तो बहत से मजदर काम कर रहे होते. काफी चहल-पहल रहती। ईंट पत्थरों की खटपट, गाड़ियों की आवाजाही रहती थी। जब उसकी ड्यूटी शुरू होती तब तक सब जा चुके होते। रात होते ही चारों तरफ सन्नाटा छा जाता, सड़क से दूर और नया कंस्ट्रक्शन होने के कारण रोशनी भी कम ही थी। चारों तरफ ईंट पत्थर और लोहा-लंगर, सीमेंट की बोरियां जिनकी रखवाली के लिए उसके साथ दो तीन और वाचमैन भी थे, बीच में किसी न किसी की आंख लग जाती, रात के सन्नाटे में उनकी बजती हुई नाक अलग डराती। बीच-बीच में नींद के झोंके भी आने लगते | थोड़े दिनों में ही उसका मन घबराने लगा और यह काम भी छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद विवेक के साथ ही लग लिया। पेट भरने को थोड़े बहुत पैसे का इंतजाम हो गया। मन में एक ही बेचैनी कि ऐसे कैसे और कितने दिन चलेगा कोई ढंग का काम नहीं मिल पा रहा था।
जब लोकल में सफर करता था तब एक तरफ बड़ी-बड़ी चमचमाती कांच की खिड़कियों वाले ऑफिसेस और रिहायशी इमारतें तो दूसरी तरफ नीले प्लास्टिकों से ढकी दूर-दूर तक पसरी झुग्गियां देखकर सोचता था कि जमीन पर फैले इस नीले रंग के आसमान के नीचे कितने सुनहरे ख्वाब सच होने के लिए पंख फड़फड़ाते होंगे। कुछ सच भी होते होंगे क्या… सोचता था किसी तरह दसवीं कर ले। दो साल हो गये इधर से उधर भटकते। कितनी बार वापस लौट जाने का ख्याल भी आया पर पता नहीं कौन-सा चुंबक है इस शहर में जो रोके हुए है… | ये शहर जहां….. उम्मीद है, रफ्तार है, रवानगी है, घड़कन है, नशा है, सपने है…..जिंदा है ये शहर। कहीं तो काम करना है यहां क्यों नहीं… हेमंत को भी अंधेरी में एक शो रूम में सेल्स प्रमोटर का काम मिल गया था। पैसे भी बढ़ गये थे और आने-जाने का समय भी कम हो गया था। हिम्मत करके उसने दसवीं का फार्म भर दिया और इम्तिहान के समय एक महीने जी तोड़ मेहनत करके जैसे-तैसे पास हो गया। इतने सालों में थोड़ा बोल्ड भी हो गया था।
इस बीच सुदीप्त की शादी तय हो गयी वह आसनसोल वापस जाने की तैयारी में था। इसी खुशी में एक दिन सबने छुट्टी ली और मुंबई घूमने का प्लान बनाया। यह पहला मौका था जब घूमने के लिए सब एक साथ निकले थे। पूरे दिन शहर का चक्कर काटकर शाम को चौपाटी पर समुद्र के ठंडे पानी में पांव रखते ही सहलाती लहरों ने उन्हें अपने जादू से बांध लिया। रेत पर बैठे वे सब अपने-अपने ख्वाबों को साझा कर रहे थे। गुरविंदर अपनी ट्रांसपोर्ट कंपनी खोलना चाहता था। सुदीप्त शादी के बाद आसनसोल में ही अपने मां-बाप के साथ रहने की सोच रहा था। विवेक अपने काम से खुश था उसे कुछ अच्छे बड़े एसाइनमेंट मिल गये थे। हेमंत अभी हाल फिलहाल अंधेरी में ही काम करना चाहता था वहीं पास एक क्लीनिक में काम करने वाली लड़की मीनाक्षी शिंदे से उसकी पहचान बढ़ गयी थी। और वह… | उसके सामने अपने बाप की तस्वीर आंखों के सामने आ गयी… | अपने आप को संभालते हुए बोला- “पता नहीं मैं जिंदगी से क्या पाना चाहता हूं शायद ऐसा कुछ जो मुझे इस दलदल से एक ही झटके में बाहर कर दे।”
“अरे यार! साड्डी भी ये ही ख्वाहिश है, जे आज दे मुकाबले कल हौर बेहतर होवे। पर इन्ना आसान नई … | भौत मेहनत है…फिकर न करी… | अभी तू नवा-नवा है पुत्तर भौतेरे रस्ते हैं रातों-रात नीचे तौं ऊपर आन दे पर मेरी मान दूर ही रह, जल्दी पैसा कमान वास्ते कुछ गड़बड़ ना करी…..ये मुंबई है पाप्पे… | बड्डी फिसलन है इत्थे। सपने सच बी होंदे हैं ते बिखरने में भी टैम नहीं लगदा… | गुरविंदर बोला।
समुद्र के किनारे काफी देर तक सब मस्ती करते रहे। उठती-गिरती सफेद लहरें चांदी सी चमक रही थीं… यह एक यादगार दिन था।
उसके दिमाग में एक धन सवार हो गयी कि कैसे भी हो आगे पढ ले तो आगे का रास्ता शायद आसान हो जाये । सोचने लगा नाइट ड्यूटी करके दिन में पढ़ाई करे और कोई कंप्यूटर कोर्स ज्वाइन कर ले। कंप्यूटर भी जानना जरूरी है। मेहनत तो बहुत है दस-बारह घंटों की ड्यूटी के बाद पढ़ाई। वैसे काम तो बहुत मिल जायेंगे पर अगर ढंग की नौकरी चाहिए तो यही रास्ता है। दो-तीन महीने बाद एजेंसी की मदद से एक ई-कॉमर्स वेयरहाउस में पिकिंग एंड पैकिंग एक्जीक्यूटिव का काम मिला। नाम बड़ा फैंसी था पर काम वही प्रिंटिंग प्रेस जैसा, जरूरत होने पर सभी डिपार्टमेंट में सभी प्रकार के काम, सामान की लोडिंग अनलोडिंग के अलावा भी और बहुत से लिखा-पढ़ी के काम । वेयरहाउस थोड़ी दूर था पर अच्छी बात यह थी कि आठ घंटों की रोटेशनल शिफ्ट थी, एक समय का खाना, पिकअप और ड्राप की सुविधा और नाइट ड्यूटी का अलग अलाउंस भी, पैसे भी बुरे नहीं थे। बहुत दिनों बाद कोई ढंग का काम मिला था।
वह कंप्यूटर सीखना चाहता था। कुछ महीनों बाद बहुत रिक्वैस्ट करने पर नाइट शिफ्ट के आधे अलाउंस की शर्त पर सुपरवाइजर उसे ज्यादा से ज्यादा नाइट शिफ्ट देने के लिए तैयार हो गया। ये भी कहा कि अगर बहुत जरूरत होगी तो उसकी शिफ्ट बदली जा सकती है। उसने घर के पास ही एक कंप्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में तीन महीने का एक बेसिक कंप्यूटर कोर्स ज्वाइन कर लिया। वहां और भी बहुत से कोर्सेज थे। काफी व्यस्त हो गया था। बाकी अपने काम भी होते थे, थक जाता था पर उसने बारहवीं का फार्म भी भर दिया और जम कर मेहनत की यहां तक कि ड्यूटी पर भी समय मिलते ही किताब लेकर बैठ जाता। उसकी लगन देखकर एक्जाम के समय उसके साथियों ने उसका काम बांट लिया। पास होते ही उसमें एक नया जोश आ गया। इतने सालों में काफी कुछ बदल गया था। उम्र के साथ-साथ जिंदगी को देखने का नजरिया और ख्वाहिशें भी बदल रही थी…
सुदीप्त आसनसोल वापस चला गया था। हेमंत ने अंधेरी में ही किराये पर रहने की जगह ले ली थी क्योंकि मीनाक्षी अंधेरी स्टेशन के पास रहती थी और वह शादी के बाद वहीं पास में रहना चाहता था। विवेक कभी-कभी हफ्तों साइट पर ही रह जाता। गुरविंदर उसी कंपनी में मैनेजर हो गया था और दिन में काम पर जाने लगा था। विवेक और गुरविंदर एक और रूममेट की तलाश में थे। सुदीप्त और हेमंत के चले जाने से शेयरिंग का हिस्सा बढ़ गया था। बारहवीं के बाद उसने नौकरी करते-करते उसी इंस्टीट्यूट में इंगलिश स्पीकिंग कोर्स और पर्सनैलिटी डैवलेपमैंट की ट्रेनिंग भी लेनी शुरू कर दी। ग्रैजुएशन करते-करते उसे एक बी.पी.ओ. में नौकरी मिल गयी। वह भी ऑफिस के पास ही एक तीन कमरे के मकान में छ: लोगों के साथ शेयरिंग में रहने लगा था।
यहीं उसकी मुलाकात मेघना से हुई। मेघना के पिता जी रेलवे में क्लर्क थे। चार बहनों में सबसे बड़ी इकहरे बदन वाली गेहुएं रंग की मेघना बड़ी हंसमुख और स्मार्ट थी। बड़ी जल्दी सबसे दोस्ती कर लेती थी। जिससे बात करती उसे लगता बस उसी की दोस्त है। उसके साथ उसी निचले पायदान पर खड़ी मेघना के बड़े-बड़े सपने थे आगे बढ़ने के, कुछ हासिल करने के, किसी भी तरह इस मीडियोकर जिंदगी से बाहर निकलने के, जिनके बारे में ऑफिस में हर कोई जानता था। अपनी तरह ही आसमान छूने और जिंदगी में बहुत कुछ हासिल करने की चाह रखने वाली मेघना उसको बेहद अपनी लगने लगी थी। उसको लेकर सपने देखने लगा था और मेघना की बातों से उसे लगने लगा था कि वह भी यही चाहती है। कब से वह सही मौके की तलाश में था कि मेघना को प्रपोज करे, डरता था कि कहीं मना न कर दे। तभी मयंक आहूजा का ऑफिस में हवा के झोंके-सा आना हुआ। उसे काम की जरूरत नहीं थी बस ऐसे ही शौकिया टाइम पास करने के लिए कुछ समय के लिए काम पकड़ लिया था। बेढंगे डिजाइनर कपड़े, बड़ी-सी घड़ी, और मोटी सी चेन पहने मोटा थुलथुल मयंक गाड़ी से आता-जाता था। उसके पिता का एक्सपोर्ट-इंपोर्ट का बिजनेस था, बड़ी-बड़ी हांकता था। लोगों को इंप्रैस करने के लिए ऑफिस में अपनी तरफ से कभी पीज़ा पार्टी तो कभी डिंक पार्टी देता कभी गिफ्ट तो कभी लिफ्ट देकर शोऑफ करता था।
सब मजा करते और पीठ पीछे उसकी टांग खींचते, मजाक उड़ाते गैंडा कहते थे उसे। देखते ही देखते पूरे ऑफिस का रंग ही बदल गया। लड़के तो लड़के लड़कियां भी उसके पैसे से इंप्रैस थी… वैलेंटाइन डे पर ऑफिस में पार्टी के दौरान सब एक दूसरे को फ्रेंडशिप रिबन बांध रहे थे तभी मयंक ने मेघना को एक लाल गलाब के साथ मंहगा परफ्यम दिया और मेघना के कंधे पर हाथ रखकर सट कर सैल्फी ली तो सब चौंक गये। मेघना के चेहरे पर आयी शर्मीली मुस्कान को देखते हुए उसे लगा कि मेघना इसकी उम्मीद कर रही थी। उसका दिल बैठ गया। पार्टी में और कोई उसे दिख ही नहीं रहा था। मेघना और मयंक….दोनों दो छोर… सब कुछ इतना अचानक हुआ कि वह बस देखता ही रह गया। सब लड़कियां मेघना से हंसी-मजाक करने लगीं तो कोई बधाई देने लगी। पार्टी में अब उसका मन नहीं लग रहा था। वह बाहर कॉरीडोर में गहरी सांस लेकर अपने आप को संभालने की कोशिश करने लगा।
सारी रात करवटें बदलता रहा। मेघना और मयंक…मयंक और मेघना…. | नहीं यह नहीं हो सकता। उसके सपनों के पंख फैलाने के पहले ही हवा का रुख बदल गया। आज ही बात करेगा मेघना से… पछता रहा था कि अब तक क्यों नहीं उसने अपने दिल की बात मेघना से कही। सुबह वह थोड़ा जल्दी ऑफिस पहुंचा सब अपनी-अपनी डेस्क पर बैठने की तैयारी करते हंस बोल रहे थे। उसे लगा कि सब उस पर हंस रहे हैं उसका मजाक उड़ा रहे हैं… जबकि उसकी बगल में बैठने वाले जगदीश के अलावा उसने किसी से भी मेघना के बारे में शेयर नहीं किया था। आते ही सब काम में इतने व्यस्त हो गये कि बात करने का समय ही नहीं मिला और वह ऑफिस में बात भी नहीं करना चाहता था। शाम को वो ऑफिस के बाहर मेघना का इंतजार कर रहा था तभी मेघना, विशाखा और मयंक किसी बात पर हंसते हुए बाहर निकले । मयंक ने बाई किया और कार की तरफ बढ़ गया।
‘हाय..कब से खड़े हो..?’
‘बस अभी ही… | कैसी हो??’
‘कैसी हो मतलब… ठीक हूं….ऑफिस में मिले तो थे। इतने फॉर्मल क्यों हो रहे हो?’ पास की कॉफी शॉप के बाहर पड़ी एक मेज की ओर बढ़ते हुए बोली।
‘नहीं, फॉर्मल नहीं’, बैठते हुए बोला। उसने दोनों के लिए कॉफी ऑर्डर की और बोला-
‘कल पार्टी में…..।’
‘हां कल पार्टी में बहुत मजा आया। तुमने कुछ नोट किया… | चहकते हुए मेघना बोली।
उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा।
‘अरे विशाखा को परमिंदर ने प्रपोज़ किया। दो साल से उन दोनों का अफेयर चल रहा था। तुमने देखा नहीं?’
वह किसी को क्या देखता उसकी आंखें तो मयंक और मेघना पर टिकी थीं।
‘नहीं… | मैंने ध्यान नहीं दिया।’
…तुम्हारा ध्यान कहां रहता है!! इस समय भी तुम्हारा ध्यान कहीं और है।’
‘मेघना…. | मैं बहुत दिनों से तुमसे कुछ कहना चाह रहा था। मेज पर रखे उसके हाथ पर अपना हाथ रखते हुए बोला।
मेघना ने उसकी ओर देखा…।’ कहो क्या कहना है?’
थोड़ी देर वह उसे देखता रहा फिर बोला, ‘अपने और तुम्हारे बारे में… | हम दोनों के बारे में… | मेघना! कल मुझे मयंक का तुम्हें फूल देना अच्छा नहीं लगा वो भी लाल गुलाब… | मतलब जानती हो इसका! ऊपर से सैल्फी भी…’
‘तो गलत क्या है इसमें..? मुझे पसंद करता है…’ अपना हाथ धीरे से उसके हाथ के नीचे से निकालती हुई बोली।
‘गलत. गलत क्या है? पसंद करता है तुम्हें.. | और मैं… शकल देखी है उस गेंडे की…!! पैसों का रौब जमाता है। कितना भद्दा लग रहा था तुम्हारे साथ फोटो खिचाते हुए!
‘पैसा है तो रौब दिखाएगा ही। इसमें गलत क्या है? हम सब नहीं चाहते क्या पैसा? और बाकी सब….. ।’
‘मेघना!’
“बाकी सब पहनना-ओढ़ना, चाल-ढाल, पर्सनैलिटी… | सब बदल सकता है। नहीं बदलती है तो केवल पैदाइश ।’
दूर कहीं देखती हुई बोल रही थी मेघना….. वीरेंद्र मैं हमेशा से एक मौके की तलाश में थी। विशाखा सही कहती है दिल से नहीं दिमाग से सोचो, प्रैक्टिकल बनो। बहुत कुछ पाने के लिए छोटा-छोटा कुछ छोड़ना ही पड़ेगा।
मेज पर रखे उसके हाथ पर अपने दोनों हाथ रखकर उसकी आंखों में देखते हुए धीरे से बोली…।’ सोचो तो वीरेंद्र किस्मत मेरा दरवाजा खटखटा रही है। इस दलदल से निकलने का मौका…..गोल्डन चांस…’
अपना हाथ धीरे से उसके हाथों के नीचे से निकाल कर वह उठ खड़ा हुआ।
उसकी गीली हो आयीं आंखों में देखती हुई मेघना बोली.., ‘प्लीज़ वीरेंद्र ट्राई टू अंडरस्टैंड, प्लीज़ ।’
‘यस..मेघना… | बाई….. कहने को कुछ बचा नहीं था और अपनी ओर मयंक के बढ़े हुए हाथ थाम कर मेघना कब की ऊपर के पायदान पर आ खड़ी हुई और वह अभी भी अकबकाया-सा उस दलदल से बाहर आने के लिए परी ताकत से हाथ-पांव मार रहा है, उसकी सांस फल रही है और पांव दलदल के भीतर उगी शैवाल में बुरी तरह उलझ कर रह गये हैं…
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
