main bhi school jaungi
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

मुन्नी के बापू रेलवे फाटक पर नौकरी करते थे। जब मुन्नी लगभग चार साल की हुई तो उसके बापू की बदली जंगल के रेलवे फाटक पर हो गई। मुन्नी, अपने बापू के साथ जंगल के रेलवे फाटक के पास दो कमरों वाले घर में आ गई। मुन्नी को अपनी माँ के बारे में कुछ भी याद नहीं था। उसने बापू से बस यही सुना था कि जब वह बहुत छोटी थी तो माँ का देहांत हो गया और बापू ने ही उसे पाल-पोस कर बड़ा किया किया था। मुन्नी की माँ के देहांत के बाद से ही बापू का मन उचाट-सा रहता था। उन्होंने लोगों से मिलना-जुलना भी बहुत कम कर दिया था।

जंगल के रेलवे फाटक पर आ कर मुन्नी के बापू को एक तरह से अच्छा ही लगा। चारों तरफ जंगल, रेलवे क्रॉसिंग पर छोटा-सा मकान और उनकी सहायता के लिए एक हैल्पर मोहन!

उन्होंने मकान के पीछे छोटी-सी बगिया बना ली, जिसमें वे कई तरह की तरकारियाँ उगाने लगे। मोहन ही हर सप्ताह बाजार जाकर पूरे सप्ताह का राशन-पानी ले आता था। मुन्नी के बापू तभी बाजार जाते जब बहुत जरूरी काम होता, तब वे मुन्नी को भी अपने साथ ले जाते। वे अकसर ग्यारह बजे की गाड़ी पास करवा कर किसी ट्रक पर बैठ कर बाजार जाते और जैसे ही उनका काम समाप्त होता, वापस आ जाते। वहाँ मुन्नी को एक मशहूर हलवाई की दुकान से जलेबी जरूर खिलाते और एक डिब्बा बर्फी का साथ ले आते। वे जानते थे कि मुन्नी को बर्फी बहुत पसंद है।

रेलवे फाटक से दिन भर में पाँच गाड़ियाँ आतीं-जातीं और रात में दो गाड़ियाँ निकलतीं। इनके अलावा मालगाड़ियाँ तथा कभी खाली इंजन भी निकलता। मुन्नी दिन भर गाड़ियों के आने का इंतजार करती, खेलते-खेलते जैसे ही किसी गाड़ी के आने का समय होता और फाटक बंद होने की आवाज होती, वह दौड़ कर फाटक पर पहुँच जाती। फाटक बंद होने की वजह से दोनों तरफ कई वाहन आकर रुकते जाते। मुन्नी वहाँ खड़े हर ट्रकों को देखती और सोचती इनमें जो माल भरा है, वह कहाँ से आता है और कहाँ जाता है? कार में जो परिवार बैठा है, उनके बच्चे क्या करते होंगे? बस की सवारियाँ कैसी-कैसी हैं? उनके बारे में जाने क्या-क्या कल्पना करती रहती। फिर ट्रेन आ जाती। वह उसके हर डिब्बे को ध्यान से देखती, कितने लोग भरे बैठे हैं उसमें। वह मोहन से उन वाहनों पर बैठे लोगों के बारे में बात करती तो वह कुछ अटपटा-सा जवाब देकर उसे टाल देता।

मुन्नी फिर बगिया में चली जाती, बगिया के हर पौधे से उसकी दोस्ती थी। उसे पता था कि कितने बैगन किस पौधे पर लगे हैं, भिंडी पर फूल आने के बाद कैसे भिंडी बनती है। कौन-कौन से नये फूल आये हैं। कब, कैसी तितलियाँ वहाँ आती हैं। उसके बापू ने चिड़ियों को पानी पिलाने के लिए एक मिट्टी का बरतन बगिया में रखा हुआ था, जिससे चिड़ियाँ वहाँ आकर अक्सर पानी पीती थीं। मुन्नी उस बरतन में हर रोज ताजा पानी डालना नहीं भूलती थी। वह चिडियों से, पेड़ों से बातें करती और अपनी इसी दुनिया में मस्त रहती।

इधर कुछ दिनों से एक छोटा लड़का मूँगफली के पैकिट लेकर फाटक पर सवेरे पहली गाड़ी के निकलने से पहले ही पहुँच जाता और जब तक ट्रेन नहीं आती, फाटक के दोनों ओर रुके वाहनों पर बैठे लोगों को मूँगफली के पैकिट बेचता।

मुन्नी ध्यान से उसे देखती रहती कि एक बार फाटक बंद होने पर उसके कितने पैकिट बिके हैं। जब उसके अधिक पैकिट बिकते तो वह खुश हो जाती और जब बहुत कम या बिलकुल भी नहीं बिकते तो वह भी उदास हो जाती। कभी-कभी वह बापू से पैसे लेकर लड़के से एक पैकिट मूँगफली खरीद लाती, उसमें से थोड़ी मोहन को, थोड़ी बापू को देती, बाकी खुद खा लेती, कभी कुछ दाने निकाल कर चिड़ियों को भी खिलाती।

दोपहर के वक्त मूँगफली वाला लड़का अपने साथ बाँधकर लाया हुआ खाना खाता। मुन्नी को उत्सुकता होती कि वह क्या खा रहा है, पर वह लड़का अपनी सूखी रोटी अचार या कुछ सब्जी छुपाकर खाना ही पसंद करता था। खाना खाकर वह मुन्नी के घर के सामने वाले हैंडपंप से पानी पीने आता तो मुन्नी पूरा जोर लगाकर हैंडपंप चलाती और उसे पानी पिलाकर खुश होती। दोनों मुस्करा कर देखते, फिर लड़का अपना मूँगफली वाला झोला लेकर फाटक पर चल देता।

ऐसे ही मुन्नी बड़ी होती गई, वह छ: वर्ष की होने वाली थी, पर उसे अपने इस जीवन से कोई शिकायत नहीं थी।

सर्दियाँ आ गईं। मुन्नी के बापू ने पुरानी रजाई की रुई धुनवाकर नई रजाई में डलवाने की सोची। उन्होंने मोहन से कहा कि वे अगले रोज सवेरे ही मुन्नी को लेकर कस्बे के बाजार जायेंगे और शाम को ही रजाई बनवाकर वापस आयेंगे, फिर उन्होंने मोहन को अपने पीछे फाटक के काम को अच्छी तरह संभालने की हिदायत दी।

अगले दिन मुन्नी जल्दी तैयार हो गई, और वे दोनों एक ट्रक पर बैठकर लगभग नौ बजे कस्बे के बाजार में पहुँच गए। बापू पहले रुई धुनकर रजाई बनाने वाले के पास गए। मुन्नी बाहर बैठ कर लोगों को आते-जाते देखती रही, तभी उसने कुछ बच्चों को एक जैसी ड्रेस पहने वहाँ से गुजरते देखा, कुछ बच्चे रिक्शा पर भी बैठे थे। सभी ने एक जैसे कपड़े पहने थे। सबने बस्ता और पानी की बोतल भी ले रखी थी। मुन्नी बहुत उत्सुकता से उनको देखती रही, फिर उसने बापू से पूछा, ‘ये बच्चे कहाँ जा रहे हैं?’

मुन्नी के बापू ने बताया, ‘ये सभी स्कूल जा रहे हैं।’

‘वहाँ क्या करते हैं?’ मुन्नी ने फिर पूछा।

‘वहाँ ये बच्चे अलग-अलग दर्जों में पढ़ते हैं, इनके अध्यापक इन्हें कई तरह की पढ़ाई करवाते हैं। ये सभी मिलकर कई तरह के खेल भी खेलते हैं, और भी कई तरह के कार्यक्रम होते हैं जिनमें ये बच्चे भाग लेते हैं।’

‘तो मैं भी स्कूल जाऊँगी!’ उसने बड़े निश्चयात्मक स्वर में बापू से कहा।

‘पर तुम अकेली इतनी दूर जंगल से स्कूल कैसे आ सकती हो? अभी तो तुम्हारा स्कूल जाना बहुत मुश्किल है।’

यह सुनकर मुन्नी उदास हो गई।

शाम को मुन्नी बापू के साथ रजाई तथा बर्फी का डिब्बा लेकर वापस अपने जंगल वाले घर आ गई, पर उसका मन तो उन बच्चों की ड्रेस पर अटका हुआ था।

रात को भी उसकी आँखों में नींद नहीं थी। वह स्कूल के बच्चों के बारे में ही सोचती रही। काफी देर बाद जब उसे नींद आई तो सपने में उसने देखा कि वह भी सुंदर ड्रेस पहन कर रिक्शा पर बैठकर स्कूल जा रही है।

सवेरे मुन्नी का मन न तो बगिया के पौधों में लगा और न ही वह रेलवे फाटक बंद होने पर दौड़कर वहाँ गई। वह मूँगफली बेचने वाले लड़के के पास गई और उसे एक जैसी ड्रेस पहनकर स्कूल जाने वाले बच्चों के बारे में बताया।

‘हाँ-हाँ, मैं तो ऐसे बच्चों को रोज ही देखता हूँ।’ लड़के ने कहा।

‘तो क्या तुम भी कभी स्कूल नहीं गए?’

‘नहीं, कभी नहीं।’

‘तुम तो मुझसे बड़े हो, तब भी तुम स्कूल क्यों नहीं गए?’

‘मेरे बापू बीमार थे, माँ काम पर जाती तो मुझे उनकी देखभाल के लिए उनके पास छोड़ जाती। माँ की मजदूरी के पैसे भी दवा में खर्च हो जाते थे, माँ ने उनके इलाज के लिए कुछ पैसे उधार भी लिए। ऐसे में मैं स्कूल कैसे जा सकता था?’

‘तो अब तुम्हारे बापू कहाँ हैं?’

‘वे ठीक नहीं हुए, मर गए तो माँ ने मुझे यहाँ मूँगफली बेचने के लिए भेज दिया। पर अब मैं भी माँ से कहूँगा कि वह मुझे भी स्कूल पढ़ने के लिए भेजे!’

मुन्नी उदास-सी वापस घर आ गई। मुन्नी के बापू ने उसके इस बदलाव पर ध्यान दिया। वे भी सोच में पड़ गए कि उनकी बेटी की उदासी का कारण कहीं उनका इस तरह जंगल में रहना तो नहीं है।

उन्होंने मुन्नी से पूछा, ‘बेटी क्या बात है? तुम चुपचाप कुछ सोचती रहती हो, फाटक पर ट्रेन आने पर भी नहीं जाती, मुझे कुछ बताओ तो!’

‘बापू मैं स्कूल जाऊँगी!’

बापू समझ गए कि उसकी स्कूल जाने की ललक कितनी सच्ची है। उन्होंने अगले दिन ही बड़े स्टेशन पर जाकर बड़े साहब से मिलने का निश्चय कर लिया।

अगले दिन ही वे बहुत झिझकते हुए बड़े साहब के पास पहुँचे, ‘सर मैं जंगल वाले रेलवे फाटक पर काम करता हूँ, मेरी बच्ची छ: साल की होने वाली है, वह स्कूल जाने का हठ कर रही है। जंगल वाले फाटक से तो उसको स्कूल भेजना बहुत मुश्किल है। मेरा ट्रांसफर किसी शहर वाले फाटक पर करवा दें तो मैं अपनी बच्ची को स्कूल भेज सकूँगा।’

‘अरे भाई! तुमने मुझको पहले क्यों नहीं बताया? तुम्हारी बच्ची के लिए पढ़ना तो बहुत जरूरी है। तुम अभी तो बच्ची को घर पर ही पढ़ाओ, स्कूल के अगले सत्र के शुरू होने के पहले ही मैं जंगल वाले फाटक पर किसी और को भिजवाने का प्रबंध करता हूँ और तुम्हें शहर के फाटक पर भेज देता हूँ।’

मुन्नी के बापू की खुशी का कोई ठिकाना न था। अब उन्हें मुन्नी की माँ के देहांत के बाद फिर मुन्नी के प्रति अपनी खास जिम्मेदारी का एहसास हुआ। वे हाथ जोड़कर बाहर निकलने को हुए कि बड़े साहब ने फिर कहा, ‘अच्छा रुको, मैं चपरासी को घर भेजकर तुम्हारी बच्ची के लिए रंगीन तस्वीरों वाली किताबें मँगवा देता हूँ, जो मेरे बच्चों ने पढ़ी थीं और अब वे बड़े स्कूलों में चले गए हैं।’

‘ठीक है साहब, मैं बाहर बैठता हूँ।’

‘और सुनों! घर जाने से पहले बच्ची के लिए कापियाँ, ड्राइंग करने की पुस्तक, रंग पेंसिल आदि भी लेते जाना, उसे बहुत अच्छा लगेगा। उसका पढ़ाई की तरफ रुझान और बढ़ेगा। तुमको उसकी सहायता करनी होगी।’

‘ठीक है साहब!’

मुन्नी के बापू के चेहरे पर बहुत दिनों बाद वैसी संतोष भरी मुस्कराहट आई। शाम को जब वे रंगीन तस्वीरों वाली किताबें, कापियाँ तथा अन्य वस्तुओं लेकर घर पहुँचे और मुन्नी को सभी चीजें दीं तो मुन्नी की खुशी तो मानो आसमान छूने लगी। वह तो फूली नहीं समा रही थी, उसे तो जैसे कोई खजाना-सा मिल गया हो। वह रंगीन चित्रों वाली पुस्तकें देर तक देखकर जाने क्या-क्या सोचती रही।

कुछ देर बाद जब मुन्नी के बापू ने उसे बताया कि गर्मियों की छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुलेंगे तो वह भी वैसी ही सुंदर ड्रेस पहनकर स्कूल जाएगी तो मुन्नी खुशी के मारे नाचने लगी, ‘मैं भी स्कूल जाऊँगी, सब बच्चों के साथ खेलूँगी, अहा! मैं ड्रेस पहनूँगी!’

अगले दिन से फिर उसकी अपनी किताबें देखने के साथ-साथ पहले वाली दिनचर्या शुरू हो गई। मूँगफली बेचने वाले लड़के को भी उसने अपनी रंगीन किताबें दिखाई। वह भी बड़ी उत्सुक्ता से उन किताबों को उलट-पलट कर देखता रहा। तब मुन्नी ने उसको अपने स्कूल जाने के बारे में बताया। लड़का हैरानी के साथ कुछ उदास भी हो गया।

घर जाकर लड़के ने भी अपनी माँ से कहा कि वह भी स्कूल जाना चाहता है। उसकी माँ ने अब उसकी मूँगफली की कमाई से तथा अपनी मजदूरी के पैसों से एक कपड़े सीने की मशीन खरीद ली थी।

वे बेटे से बोलीं, ‘हाँ-हाँ क्यों नहीं बेटा, तुम भी गर्मियों के बाद जरूर स्कूल जाओगे। मैं तो कब से यही सोच रही थी कि मशीन से लोगों के कपड़े सीकर अच्छे पैसे कमाऊँ और तुम्हें खूब पढ़ाऊँ, तुम्हारे बापू भी यही चाहते थे।’

लड़के को तो मनचाही मुराद मिल गई। अगले दिन जब उसने मुन्नी को अपने भी स्कूल जाने के बारे में बताया तो दोनों की खुशी दुगनी हो गई। अब खाली समय दोनों चित्रों वाली किताबें देखते, रंगों से कुछ चित्र बनाने का प्रयास करते और अपने काल्पनिक स्कूल के बारे में बातें करते।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’