जिसने कभी अध्यात्म का स्पर्श ही नहीं किया, वही बाहर सुख की कल्पना कर सकता है। जिसने एक बार भी अध्यात्म के सुख का स्पर्श कर लिया, उसे बाहर में कभी सुख नहीं लगता। भीतर में जब सुख के स्पंदनों की अनुभूति होने लगती है तब साधक आत्मविभोर होकर उसी में खो जाता है।
