Asperger Syndrome: भारती अपने 5 साल के बेटे के बिहेवियर को लेकर काफी परेशान रहती थी। वह पढ़ाई में तो होशियार था, लेकिन घर और बाहर दूसरों से मिक्स नहीं हो पाता था। यहां तक कि अपने पेरेंट्स से भी रिजर्व रहता था। दूसरे बच्चों की तरह दोस्तों के साथ खेलने के बजाय अकेले रहना, ड्राइंग करना उसे बेहद पसंद था। अगर भारती उसे शाम को पार्क भी लेकर जाती तो वह सबसे अलग रहता या अकेले झूला झूलता रहता। परेशान होकर भारती ने उसे बालरोग विशेषज्ञ को दिखाया। डॉक्टर ने एस्परगर सिंड्रोम होने के अंदेशे से उन्हें साइकोलॉजिस्ट को कंसल्ट करने की सलाह दी। भारती बेटे को साइकोलाॅजिस्ट के पास लेकर गई जहां उसका 3 साल से इलाज चल रहा है और पहले की अपेक्षा वह थोड़ा फ्रेंडली हुआ है।
क्या है एस्परगर सिंड्रोम?
एस्परगर सिंड्रोम एक न्यूरोलाॅजिकल डेवलेपमेंटल डिसऑर्डर है। यह ऑटिज्म स्पैक्ट्रम डिसऑर्डर (एएसडी) के सब-टाइप के रूप में जाना जाता है। एस्परगर सिंड्रोम ऑटिज्म से थोड़ा अलग यानी यह हाई फक्शनिंग ऑटिज्म है। ऑटिस्टिक बच्चे जहां मंद बुद्धि, अपने काम करने में अक्षम, दूसरों पर निर्भर होते हैं। वहीं एस्परगर सिंड्रोम के बच्चे अपने कार्यो को करने में सक्षम होते। यहां तक कि उनका आईक्यू लेवल सामान्य या उससे ज्यादा हो सकता है। लेकिन ऐसे बच्चे लैंग्वेज डेवलेपमेंट, सोशल इंटरेक्शन और कम्यूनिकेशन स्किल में पिछड़े होते हैं।
एस्परगर सिंड्रोम ज्यादातर बच्चों में पाया जाता है। वास्तव में यह कोई बीमारी नहीं है। सिंड्रोम की वजह से बच्चे की मेंटल और सोशल डेवलेपमेंट, उसकी कॉग्निटिव स्किल पर असर पड़ता है। बचपन में अगर इस बीमारी का इलाज नहीं करवाया जाता, तो यह सिंड्रोम बड़े होने पर भी देखा जा सकता है। जिसकी वजह से व्यक्ति को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। जैसे कि वे बड़े होने पर भी अपनी फीलिंग किसी के सामने एक्सप्रेस नहीं कर पाता। इंटेलीजेंट होने के बावजूद समुचित सफलता प्राप्त नहीं कर पाते।
कैसे होती है पहचान

- ऐसे बच्चे सोशल एक्टिविटी में शामिल होने से कतराते हैं और अकेले रहना पसंद करते हैं। उन्हें सोशल रिलेशनशिप यानी फैमिली, दोस्तों, रिश्तेदारों से संबंध बनाने में मुुश्किल आती है। सोसाइटी में रहने के नियम-कानून से अनभिज्ञ होते हैं। क्लास में ग्रुप डिस्कशन करना, दोस्तों के साथ खेलना या कोई एक्टिविटी करना नहीं चाहते। बस अपनी ही धुन में रहते हैं।
- दूसरे बच्चे के समान डेवलेपमेंट-माइलस्टोन के आधार पर ठीक समय पर बोल न पाना, कम्यूनिकेशन भाषा सीख नहीं पाते। ये लोग आई-काॅन्टेक्ट करके बात नहीं कर पाते। सोशल इंटरेक्शन में वे कंफर्टेबल महसूस नहीं करते। दूसरों से बात करने में परेशानी होती है।
- इन बच्चों में भावनाओं की कमी पाई जाती है। वे दूसरों की भावनाएं, हाव-भाव (गुस्सा-खुशी ) को आसानी से नहीं समझ पाते। और न ही अपनी भावनाओं को ठीक तरह व्यक्त कर पाते हैं। यहां तक कि कई बार अपने पेरेंट्स से भी दूरी बना कर रहते हैं और अपने काम में लगे रहते हैं।
- इनके बोलने का तरीका रोबोटिक और भावरहित होता है। कई बातें या काम एक ही पैटर्न पर या रिपीट करते रहते हैं। कुछ बोल रहे हैं , तो एक ही शब्द या वाक्य बार-बार बोेलते रहते हैं। अपने पसंदीदा किसी विशेष टाॅपिक पर लंबे समय तक बोल सकते हैं। उन्हें यह तक नहीं पता चलता कि सामने वाला उनकी बातों में रूचि ले रहा है या नहीं।
- लेकिन ऐसे बच्चे बुद्धिमान होते हैं और उनकी काॅग्नेटिव पाॅवर, आकलन क्षमता, तर्क-वितर्क क्षमता उच्च कोटि की होती है। ऐसा बच्चा हरेक चीज के पैरामीटर का बारीकी से विश्लेषण करता है। किसी चीज, वस्तु विषय या किसी क्षे़त्र में उसकी विशेष रूचि होती है जिसे वह पूरी शिद्दत या जुनून से करता है जैसे- ड्राइंग, आर्ट, मैथ्स, कम्प्यूटर, साइंस। यानी किसी एक स्किल में वह बहुत इंटेलिजेंट होता है। उनकी रूचि जिस विषय या काम में होती है, उसमें कामयाबी पा सकते हैं। इसी वजह से उन्हें लिटिल प्रोफेसर होते हैं यानी छोटी उम्र में ही किसी एक फील्ड पर काफी जानकारी हासिल कर लेते हैं।
- ऐसे बच्चे आत्मनिर्भर होते हैं। अपने पसंदीदा काम को खुद करना पसंद करते हैं। इन्हें किसी की सपोर्ट की जरूरत नहीं होती। यहां तक कि बड़े होने पर भी आत्मनिर्भर होकर काम करते हैं।
क्या है खतरा

अगर एस्परगर सिंड्रोम के शिकार बच्चे के समय पर उपचार नहीं हो पाता, तो उनके भावनात्मक, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जैसे-एस्परगर सिंड्रोम से पीड़ित बच्चे को पढ़ने-लिखने में दिक्कत आने से वे पढ़ाई में पिछड़ सकते हैं। सोशल इंटरेक्शन न कर पाने की वजह से अपने हमउम्र लोगों के साथ घुल-मिल नहीं पाते और अकेलेपन का शिकार हो जाते हैं। अपनी स्थिति और समाज से तादात्म्य न बिठा पाने के कारण उनमें एंग्जाइटी, डिप्रेशन जैसे मानसिक समस्याएं होने की संभावना रहती है।
क्या हैं कारण
हालांकि एस्परगर सिंड्रोम होने के मूल कारणों के बारे में सटीक तौर पर नहीं कहा जा सकता।लेकिन रिसर्च से यह साबित हुआ है कि इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं जैसे जेनेटिक यानी व्यक्ति के जीन में म्यूटेशन होने पर इसका रिस्क रहता है। इसके अलावा गर्भवती स्त्री के टाॅक्सिक तत्वों के साथ एक्सपोज़र, इंफेक्शन और गर्भावस्था के दौरान स्ट्रेस में रहने जैसे एन्वायरन्मेंटल कारण भी हो सकते हैं। इन कारणों से शिशु के मानसिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जिससे उसमेें एस्परगर सिंड्रोम होने का खतरा रहता है।
क्या करें
बच्चों में एस्परगर सिंड्रोम की पहचान आमतौर पर 2-3 साल की उम्र में हो जाती है। इस उम्र में पेरेंट्स को अपने बच्चे के स्वभाव में कुछ बदलाव नजर आते हैं, तो उन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। बच्चे को बाल रोग विशेषज्ञ या बाल मनोवैज्ञानिक को जरूर दिखाना चाहिए।
कैसे होता है डायगनोज

बच्चे की केस हिस्ट्री और फिजीकल एग्जामिनेशन किया जाता है। एस्परगर सिंड्रोम का शक होने पर उसके डेवलेपमेंट-माइलस्टोन और बिहेवियर का मूल्यांकन होता है। जिसमें कई तरह के टेेस्ट और निरीक्षण के माध्यम से बच्चे की सोशल कम्यूनिकेशन और बिहेवियर स्किल को परखा जाता है।
कैसे करते हैं उपचार
हालांकि एस्परगर सिंड्रोम का पूरी तरह से कोई इलाज नही है, लेकिन साइकोलाॅजिकली और मेडिकली इसे ठीक जरूर किया जा सकता है। इसका पता चलने पर बच्चे को कई तरह की थेरेपी दी जाती हैं जैसे- एप्लाइड बिहेवियर एनालिसिस, ओक्यूपेशनल थेरेपी, स्पीच थेरेपी, काॅग्नेटिव-बिहेवियरल थेरेपी, सोशल स्किल थेरेपी। इन थेरेपी के माध्यम से बच्चे के सोशल इंटरेक्शन, कम्यूनिकेशन स्किल और ज्ञानेन्द्रियों की सेंसेविटी में सुधार हो सकता है। इसके अलावा काउंसलिंग, स्पेशल एजुकेशन क्लास और सपोर्ट ग्रुप के माध्यम से मरीज को गाइडेंस दी जाती है। बच्चे की स्थिति के आधार पर जरूरत हो तो एंटी-डिप्रेसेंट दवाइयां दी जाती हैं।
एस्परगर सिंड्रोम के बच्चों के उपचार में पेरेंट्स और परिवार के माहौल की अहम भूमिका रहती है। चूंकि इसका उपचार लंबा चलता है। मुख्यतया सोशल इंटेक्शन और सोशल बिहेवियरल इशू होते हैं, जिसके लिए पूरे धैर्य, समझदारी और पूरा टाइम देने की जरूरत होती है। जिसके बल पर पेरेंट्स बच्चे की समस्या सुधारने में मदद कर सकते हैं और उन्हें एक-एक चीज सिखा सकते हैं। उन्हें अपने निजी या दूसरे काम करनेे, तरह-तरह की एक्टिविटीज करने या पसंदीदा हाॅबीज को विकसित करने, दूसरों के साथ मिलने-बात करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित कर सकते हैं। परिवार का माहौल नेगेटिव होने पर बच्चों में यह सिंड्रोम ज्यादा बढ़ सकता है जो आगे चलकर एंग्जाइटी, डिप्रेशन में बदल सकती है।
(डाॅ रोहित शर्मा, मनोचिकित्सक, स्वास्तिक साइकाइटरी सेंटर, दिल्ली)