कुछ ढूंढ रहा अंतर्मन-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Story in Hindi
Kuch Dhoond Raha Antarman

Story in Hindi: फिर से वही लंबा सा निस्तेज दिन………“ बहु मेरी जरूरतों का सामान रख देगी और कामवाली बाई को हर रोज दिया जाने वाला वही भाषण ……. जब तक मैं ऑफिस से ना लौटूं तुम्हें मां जी का ख्याल रखना है …….।”
पोते-पोतियां स्कूल चले जाएंगे । बेटा सुबह सात बजे के गए रात में दस बजे लौटेगा ।”
बिस्तर पर बैठी प्रवृत्ति ख्यालों में डूबी थी ।
“मन से कमजोर हो गई हूं शरीर से नहीं ।”
प्रवृत्ति बहु से हमेशा कहती कि..……. घर के कामों में मुझे हाथ बंटाने दो ।” किंतु प्रवृत्ति को लेकर वह बहुत ही चिंतित रहती । उसका वही पुराना सा जवाब रहता ….. “मां जी पूरा जीवन तो आपने काम करते बिता दिया अब तो कुछ दिन आराम कीजिए ।”
प्रवृत्ति चाहती थी इस रीतापन को दूर करने के लिए घर के कार्य में व्यस्त रहे । चाहे रसोई का काम हो , चाहे घर के रख-रखाव , सफाई वगैरह……..किंतु बेटे-बहु की अत्यधिक प्रेम-स्नेह ने उसके अंतर्मन की इस छटपटाहट को उभरने नहीं दिया । उसका बेटा वास्तव को लगता था की मां ने पूरा जीवन काम में बिता दिया । कम से कम बुढ़ापे में तो उसे सुख और आराम मिले । इस प्रेम-स्नेह ने उस मनोवैज्ञानिक तथ्य पर ध्यान ही नहीं दिया जिसकी उसे जरूरत थी ।
पूजा-पाठ का समय प्रवृत्ति ने बढ़ा लिया था । रामायण की चौपाइयां उसकी सांस बन चुकी थी । वह पहले घर के बगल वाले पार्क में चली जाती थी किंतु पिछले साल से जोड़ों में दर्द के कारण उसने जाना बंद कर दिया था । प्रवृत्ति स्वयं को बहुत ही भाग्यशाली समझती थी । बहुत कम घरों में बुजुर्गों पर इतना ध्यान दिया जाता है । मोहल्ले की औरतें प्रवृत्ति की बहू की बड़ाई करते नहीं थकती थी । “प्रवृत्ति जी आपने कितनी तपस्या की है कि आपको ऐसी बहू मिली ।” यह सुनकर प्रवृत्ति फूले न समाती थी ।
इस उम्र में स्वयं को व्यस्त रखने के लिए कुछ नया करने का जज्बा नहीं था । सारी सुख-सुविधाओं के बाद भी प्रवृत्ति को भीतर कहीं कुछ कचोटता था । और यह उस समय अधिक होता था जब बड़ा सा एक सूना मकान उसकी ओर आंखें फाड़े देखता रहता । सभी अपने-अपने जीवन में व्यस्त थे । ऐसा नहीं था कि प्रवृत्ति को उन लोगों से कोई शिकायत थी । किंतु अंतर्मन कुछ ढूंढता…… कुछ तलाश करता……. मगर क्या……..? और जब प्रकृति आंखें बंद करती तो प्रबुद्ध का चेहरा सामने आ जाता । उस समय चाहत होती अपने अंतर्मन को किसी से बांटने की , स्वयं को किसी के सामने रखने की , कोई साथी की जो उसके उन बेचैन से लम्हों को बांट सके ।
आज जिंदगी उसे अधूरी लगने लगी थी । यादें परत दर परत खुलने लगी थी । मन उसका फिर से दुखने लगा था । सुबह का गुलाबी धूप उसे निस्तेज लगता । दोपहर विक्षिप्त हो चला था । नम आंखों से वह शाम को देखती है और रात फिर से आंसुओं में भीग जाती । जाने क्यों वक्त ने उससे मुंह मोड़ा था । नियति ने उससे उसकी जिंदगी को छीना था ।
‌ प्रबुद्ध की कही हुई बातें उसे हमेशा कचोटती थी । “प्रवृत्ति कुछ पल तो आकर मेरे पास बैठो पता नहीं यह पल मिले या ना मिले ।” और प्रवृत्ति हमेशा उसके मुंह पर हाथ रख देती …….“ऐसा मत कहो जिस दिन हमारी जिम्मेदारियां थोड़ी कम हो जाएगी हम दोनों सिर्फ एक दूसरे के लिए ही जिएंगे ।”
विवाह के बाद बड़ा सा संयुक्त परिवार……. सास-ससुर , देवर-ननद…… परिवार में बड़ा बेटा-बहू होने के नाते प्रबुद्ध और प्रवृत्ति ने बखूबी अपना फर्ज निभाया था । उन जिम्मेदारियों से निकलते ही स्वयं की जिम्मेदारियां सामने आ खड़ी हुई……एक बेटा और दो बेटियों के माता-पिता बनने के बाद उन्होंने अपना हर सांस उनके नाम कर दिया । बच्चों के पालन-पोषण , पढ़ाई लिखाई और शादी-ब्याह ने उन्हें इस प्रकार वक्त के साथ कैद कर दिया कि दो पल साथ बैठने का अस्तित्व शायद उनके जीवन में था ही नहीं ।
शायद दुनिया के हर पति-पत्नी जीवन के इसी मोड़ से गुजरते हुए यह भूल जाते हैं कि नियति जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद कुछ पल साथ बिताने को उन्हें लंबी उम्र देगी भी या नहीं । प्रवृत्ति के साथ भी यही हुआ था एक तरफ जिम्मेदारियां उसके जीवन से गईं , दूसरी तरफ प्रबुद्ध उसका साथ छोड़ .…. दुनिया से चला गया । जीवन के संघर्ष , गृहस्थी के उत्तरदायित्व और बच्चों के उज्जवल भविष्य की जिम्मेदारियों से लिपटी प्रवृत्ति ने शरीर और मन के थकान को परे ढकेलते हुए उस पल का इंतजार किया था जहां प्रबुद्ध के पास वह कुछ पल सुकून के साथ बैठ पाती । वह पल उसके लिए बर्फ जैसे ठंडे पानी में खड़े रहकर दूर जलते उस अलाव की तरह था जिसे देखकर ही उसने उस बर्फ जैसे पानी को बर्दाश्त कर लिया था ।
आज उम्र के इस पड़ाव पर उसे प्रबुद्ध के साथ की आवश्यकता थी । कितना भी अपने को व्यस्त रखना चाहती किंतु ह्रदय तल के उस सूनेपन को भर नहीं पाती थी । पारिवारिक जिम्मेदारियों के बोझ तले जब एक पति-पत्नी जीवन की शुरुआत करते हैं तो वक्त को मानो एक घमंड सा होता है । उसके साथ दौड़ते हुए पति-पत्नी किन झंझावातों से गुजर रहे हैं यह बिना देखे वक्त दौड़ता चला जाता है ।
जीवन का यह विचित्र सा पहर होता है । इस चौथे पहर को ‘बुढ़ापा’ जैसे शब्द देकर दया और सहानुभूति की आड़ में प्रेम और स्नेह जताया जाता है । किंतु उसके अंतर्मन को बांटने की कोशिश कहां की जाती है । प्रवृत्ति ने आह भरा था……… “काश ! प्रबुद्ध कुछ पल तो मेरे साथ ठहर जाते ……… प्रबुद्ध आज मुझे सबसे ज्यादा तुम्हारी जरूरत है ………काश ! मैं तुम्हारा कहा मान लेती…… सारी जिम्मेदारियों को पर धकेल कर…..बस कुछ देर … कुछ पल…… कुछ लम्हा……. कुछ क्षण………हम जी लेते…. कम से कम आज मेरे साथ उन लम्हों की….. उन यादों की…. छोटी सी फेहरिस्तें तो होती जिनके साथ मैं स्वयं को बांट लेती ।

Leave a comment