Grehlakshmi ki Kahani: वाराणसी कबीरचौरा मुहल्ला
“मां हम विद्यालय जा रहे हैं।?”
” हां बेटी जाओ, मन लगाकर पढ़ना।” काशी के आंखों में आंसू आ गए।
बालों में दो चोटियां लाल फीते से गुंथी, स्कूल ड्रेस वाली सलवार कुर्ती और दुपट्टा,कंधे पर स्कूल का बस्ता टांगें हुए कोयल को देखकर काशी की आंखों में कई सवाल उठ गए।
काशी एक देवदासी थी, जो बनारस के कबीरचौरा मुहल्ले के एक तंग गलियों में रहती थी।
अब कोयल बड़ी हो रही है.., उसे सब कुछ समझ में आने लगा है और वह खुद भी इस गंदगी में अपनी बिटिया को धकेलना नहीं चाहती थी।
कोयल स्कूल के लिए निकल गई।काशी घर साफ करने में लग गई। उसने अपनी बेटी को नहीं बताया था कि उसे बहुत तेज बुखार था।
यदि कोयल को यह पता चल जाता कि उसकी मां को बुखार है तो वह आज भी विद्यालय नहीं जाती।
काशी अभी काम ही कर रही थी तभी लाला जी के मुंशी विक्रम सेठ की आवाज आने लगी।
“काशी बाई..ओ काशी …!”
” जी!, काशी जल्दी से झाड़ू छोड़कर बाहर आई।
“जी लाला जी! “काशी ने बड़े अदब से उसने नमस्ते करते हुए कहा।
“कैसी हो काशी?” मुस्कुराते हुए लाला विक्रम सेठ ने उससे कहा।
“बस ठीक हैं सरकार! कैसे याद किया?”
” हमने नहीं याद किया तुम्हें जमींदार साहब ने याद किया है! उनकी बिटिया की सगाई है।
तुम्हें वहां महफिल सजाने के लिए बुलाया गया है।”
” पर लालाजी हमको तो बहुत तेज बुखार है। हम नहीं कर पाएंगे!”
“जमीदार साहब से मिल लो! मुझे जितना बोलना था वह मैंने बता दिया।”
“ठीक है हम अभी मिलने चले जाएंगे।” काशी अंदर चली गई ।
फिर जल्दी से अपना काम समेटने के बाद जमींदार साहब की कोठी में पहुंच गई।
जमींदार साहब बाहर दालान में ही बैठे थे। उन्होंने काशी को देखा और कहा
“सुना, तुम्हारी तबीयत खराब है?”
” जी मालिक,तीन दिनों से बुखार उतर नहीं रहा है।”
“अच्छा….!,ह्म्म्म…म्म…म!,एक लंबी सांस लेकर उन्होंने कहा
हमारी बिटिया की सगाई है… हम चाहते हैं कि यह सगाई धूमधाम से हो और हमारे घर का समारोह …बगैर तुम्हारे महफिल के कैसे होगी भला?”
कोई और मौका होता तो काशी खिल उठती क्योंकि जमींदार साहब के घर से उसका आधा खर्चा चलता था।
जमींदार साहब की तीन पत्नियां थीं। तीनों के बच्चे, कभी किसी का जन्मदिन, कभी विवाह की सालगिरह,कभी शादी, कभी उनके बच्चे, कभी बच्चों के जन्मदिन!
और काशी के बिना जमींदार साहब का कोई भी त्योहार नहीं बनता था।
एक मोटी रकम काशी को मिलती थी जिससे उसका खर्चा चलता था। यदि साफ शब्दों में कहा जाए तो काशी जमींदार साहब से लेकर उनके घर के सारे पुरुष मेंबर के रखैल थी।
जमींदार साथ में एडवांस के तौर पर उसके हाथों में नोटों की गड्डी थमाते हुए कहा
“अगर शाम तक तुम्हारा बुखार उतर जाए तो ठीक है यदि नहीं उतरे तो कोयल को भेज देना…वह भी तो अच्छा गाती और नाचती है!”
काशी की आंखों में आंसू आ गए।उसने दबे स्वर में कहा
“कोयल अभी बच्ची है मालिक! उसे इस गंदगी में क्यों धकेलें!वह पढ़ रही है।”
“इसका मतलब?” जमींदार आँखें चढ़ाकर पूछा
” बच्ची है का क्या मतलब?उसे क्या कलेक्टर बनाओगी या फिर किसी जमींदार घराने में ब्याह करोगी?
है तो वह देवदासी ही ना… तुम लोगों का काम ही यही है.. नाचना.. गाना…!
अपने पेशे से क्यों शर्माना!”
काशी की आंखों में आंसू आ गए।उसने कहा
” बड़े मालिक, अपनी जिंदगी से बड़ी कोफ्त होती है बिटिया को हम इस आग में नहीं डालना चाहते!”
जमींदार अभी उसकी बातें सुन रहे थे कि उनके तीनों बेटे वहां आ गए।
काशी की बात सुनकर सब हंसने लगे।
” क्यों काशी क्या यह तुम्हारी प्रतिज्ञा है कि तुमने कोयल को गंदगी से बचाने का संकल्प ले लिया?”
काशी बेबसी में रो पड़ी। उसने कहा
“हां बड़े मालिक,यह मेरा संकल्प है। अपने जीते जी अपनी बिटिया को नरक से बचा कर रखेंगे!”
“चलो देखते हैं तुम क्या-क्या कर सकती हो?”
काशी भी उतनी ही दृढ़ता से जवाब दिया
“ठीक है बड़े मालिक!”
काशी वापस घर लौट आई।उसने जमींदार से बहुत बड़ा पंगा ले लिया था।
वह दुख के पहाड़ से घिर गई थी। उन दिनों देवदासियों को पढ़ने की छूट नहीं थी।
न ही समाज में सबके साथ बैठने की छूट थी।
पर गांव के पुजारी ने अपना एक निशुल्क पाठशाला खोला था, जिसमें उन्होंने कन्याओं की पढ़ाई पर विशेष जोर दिया था।
उन्हीं की कृपा थी कि कोयल को स्कूल में प्रवेश करने की छूट मिली थी।
शाम को जब कोयल घर पहुंची तो उसने देखा काशी बहुत ही दुखी बैठी रो रही है।
यह देख कर कोयल घबरा उठी। उसने अपनी मां से पूछा
“माँ, आप क्यों रो रहे हैं?”
काशी ने कोयल की तरफ देखा। उसके बाद उसे अपनी बांहों में भींच लिया।
वह रोती हुई कहने लगी
” बेटी हम तुम्हारे लिए दुखों का पहाड़ खड़ा कर दिए हैं !अब किस किससे लड़ेंगे?”
कोयल यह सुन कर घबरा गई। उसने अपनी मां को उठा कर बैठा दिया।
“माँ,अच्छी तरह से बताइए क्या हुआ?”
काशी ने रोते हुए सारी बातें बता दिया।
कोयल अपनी मां का हाथ पकड़ कर बोली
” मां, मेरे सम्मान और मेरी जिंदगी के लिए आपने जो प्रतिज्ञा किया है ,वह हम जरूर पूरा करेंगे..आप निश्चिंत रखिए!”
काशी घबराकर बोली
“हम दोनों यहां से चले जाएंगे बेटी, नहीं तो जमींदार और उसका परिवार हमें जीने नहीं देगा!”
” देगा माँ… सब देगा आप निश्चिंत रहिए..। कोई भी हमें हाथ भी नहीं लगाएगा!”
अपनी बेटी के भोलेपन पर काशी मुस्कुरा तो दी पर डर उसके अंदर बैठ गया था।
भरे बुखार में वह जमींदार के घर जाकर उसकी महफिल जमाई और सगाई की जश्न मनाया।
कोयल पढ़ाई में बहुत ही अच्छी थी। वह गजब की हिंदी लिखती थी और कविताओं पर तो उसका गहरा हाथ था।
उन दिनों “त्रिवेणी प्रयाग” नामक एक अखबार निकलना शुरू हुआ था जिसमें नवोदित लेखकों को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था।
विद्यालय में पुजारी जी ने कोयल का नाम नामांकित कर दिया।
कोयल को अखबार में मौका मिल गया।वह अब अपने मन की दशा,आशाएं,सुखदुख शब्दों में पिरो कर कविताओं के रूप में लिखकर भेजा करती थी।
उस की कविताएं दर्द से भरी होती थी, उनमें आशाओं का भी संचार होता था।
कुछ ही दिनों में उसका नाम होने लगा।
स्कूल से निकलने के बाद उसे त्रिवेणी प्रयाग अखबार के संपादक ने प्रयाग के विश्वविद्यालय में उसका नाम लिखवा दिया। अब वह कॉलेज भी जाया करती थी और त्रिवेणी प्रयाग का काम भी संभाला करती थी।
जैसे ही उसकी पढ़ाई खत्म होने लगे उसे उसी अखबार में नौकरी मिल गई।
संपादक मृत्युंजय जी उसे अपनी बिटिया की तरह मानते थे।
उन्होंने अपने ही अखबार में काम करने वाले एक कर्मचारी से कोयल का ब्याह ठीक कर दिया।
उन्होंने काशी से इस शादी की इजाजत मांगी।
काशी की आंखों में आंसू आ गए।उस ने कहा
“हम देवदासियों की किस्मत में विवाह की लकीरें हथेलियों में नहीं होती हैं, आपने मेरी बिटिया का उद्धार कर दिया। कोटि-कोटि धन्यवाद।”
मृत्युंजय जी मुस्कुराते हुए बोले
“धन्यवाद आप मत दीजिए! धन्यवाद कहने का अधिकार सिर्फ मेरा है।
आपकी बिटिया जैसी सुलक्षणा लड़की के कदम जहां पड़ेंगे वह घर स्वर्ग से सुंदर हो जाएगा।
बस आप वर वधु को आशीर्वाद दीजिए। सारा काम मैं संभाल लूंगा।”
हाथ जोड़े हुए काशी की आंखें बह रही थीं। आज उसकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई थी।
एक नई पारो…!-गृहलक्ष्मी की कहानियां
