गृहलक्ष्मी की कहानियां

दिसंबर का महीना था। मौसम शरारतों पर आमादा था। कभी बारिश, कभी गुनगुनी धूप तो कभी ठंडी हवाएं। आज वह काफी जल्दी उठ गई थी। कुछ दिनों से न जाने क्यों उसकी  नींद भी बेचैन थी। बाहर बालकनी में बैठी वह सामने लगे छोटे-छोटे पेड़ पौधों को निहार रही थी।

ओस की नन्ही-नन्ही बूंदें पत्तों पर इतराती और पत्तों के हिलने से जमीन पर गिर कर अपने अस्तित्व को स्वयं ही मिटा देतीं। यही है जीवन का ताना-बाना। कभी अर्श से फर्श पर आने में देर नहीं लगती, कभी काबिलियत के पंखों से ऊंची उड़ान हासिल करना भी मुमकिन हो जाता है।

इधर कई वर्षों से अभया आराम करना तो भूल ही गई थी। अपना छोटा सा एक कमरे का फ्लैट और उस पर पड़ी ढेर सारी किताबें। यही उसके जीवन का फलसफा बन गया था। वह बालकनी पर बैठी ही थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई।डोरबेल शायद काम नहीं कर रही थी। दरवाजे पर हुई यह थाप उसने बिल्कुल वैसे ही महसूस की जैसे वर्षों पूर्व दिसंबर की ठंडी सुबह उसकी मां ने उसे उठाने के लिए खट खट की थी। वह दरवाजे की ओर बढ़ी। पीप होल से देखती हैं कि अजय बाहर खड़ा है।

“अरे अजय भैया, इतनी सुबह सुबह आज कैसे आ गए..?”

गुड मॉर्निंग, दीदी। बड़ी जल्दी उठ गई आप। माफी चाहता हूं बिना फोन किया आ गया।”

“माफी की कोई बात नहीं है अजय, पर बताओ तो सही इतनी सुबह सुबह कैसे आ गए।”

“दीदी, आपने अपना परिणाम नहीं देखा..?” लोक सेवा आयोग की परीक्षा में सफल हुई हैं आप। मुझ से रहा न गया

तो यहीं भागा चला आया।

अभया की आंखों में खुशी के आंसू छलक उठते हैं। कुछ बोल ही नहीं पाती  सिर्फ निरीह सी अजय की ओर देखती रह जाती है। अजय ही  वह शख़्स था जिसने इस अनजान शहर में उसकी मदद की थी। वह अजय से बैठने का आग्रह करती है परंतु  अजय हाथ जोड़कर उससे विदा लेता है, “बस आज मेरा लक्ष्य पूरा हुआ। अभी चलता हूं पर जब भी इस भाई की ज़रूरत हो अवश्य याद करना‌। यह हाजिर हो जाएगा।”

अभया को राधा का ख्याल आया। अजय तो बाद में मिला लेकिन राधा ही तो वह माध्यम थी, जिसने उसे यहां पर पहुंचाने में मदद की। वह राधा को फोन मिलाती है। उधर से फोन उठता है पर अभया कुछ बोल नहीं पाती। बहुत ही मुश्किल से वह इतना कह पाती है,” राधा, मैं सेलेक्ट हो गई..”

यह सुनकर राधा की खुशियों का कोई पारावार न था। दोनों सहेलियों की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए। दोनों तरफ से एक निस्तब्धता छा गई। कैसा है ना हमारा जीवन..? आंसू सदा साथ चलते हैं। कभी गम के तो कभी खुशी के‌। अनायास ही अभया  यादों के गलियारे से गुजरती हुई वर्षों पूर्व के अतीत में चली गई।
दिसंबर का महीना था। भौगोलिक परिस्थिति के कारण उनके गांव में ठंड इस शहर के अपेक्षाकृत काफी ज्यादा होती थी।लगभग सात बजे का समय रहा होगा। बाहर अभी भी धुंधलका सा था। अभया का उठने का जी बिल्कुल नहीं कर रहा था क्योंकि रजाई के भीतर भी हाथ पैरों में एक सुन्नता सी महसूस हो रही थी। तभी मां ने उसे पुकारा और दरवाजे में  हल्के हाथों से थाप दी‌‌।”अभया, उठकर  जल्दी बाहर आओ। तुम्हारे चाचा आए हैं।”

“चाचा.  मगर इतनी सुबह-सुबह क्यों?” “हां,अभया, तेरे लिए किसी अच्छे  रिश्ते की बात करने आए हैं। बैठक के कमरे में बैठे हैं तेरे बापू के साथ। तू भी हाथ मुंह  धोकर आजा। कुछ पूछना हो तो पूछ लेना।”
पास के गांव के प्रधान का बेटा उच्च शिक्षा हासिल कर शहर से लौटा था। प्रधान उसके विवाह के लिए  किसी गुणी कन्या की तलाश में थे। उन्होंने मास्टर जी की बेटी अभया के बारे में सुना था अतः उसके चाचा के माध्यम से यह प्रस्ताव भिजवाया।

कहां सर्व सुविधा संपन्न प्रधान का परिवार और कहां अभया के पिता एक साधारण सरकारी मास्टर! दोनों परिवारों में कोई तुलना ही नहीं थी। मगर फिर भी बहुत सारी लड़कियों के बीच उन्हें अपने पुत्र विकास के लिए अभया ही पसंद आई। देखने दिखाने की औपचारिकता का दिन तय किया गया। अभया ने पहली बार विकास को देखा। वह सुंदर और सुडौल नव युवक था, बिल्कुल किसी शहरी बाबू का जैसा। अभया को मन ही मन वह पसंद आ गया। इस अवसर पर अभया के पिता ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह दहेज लेन-देन के पक्ष में बिल्कुल नहीं हैं। फिर भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो कुछ भी बन पड़ेगा अपनी बेटी को अवश्य देंगे। बस फिर क्या था ! चट मंगनी पट ब्याह हो गया।

अभया दुल्हन बन ससुराल पहुंची तो वही परंपरागत सामाजिक बातें शुरू हो गई जो सदियों से हमारे समाज में होती आई हैं। मसलन, दहेज में क्या क्या आया,  विकास की बुआ ने तो ताना तक मार दिया,” मास्टर ने बेटी को बिना जेवर के कैसे ससुराल भेज दिया। “

खैर, इन बातों को समाज का हिस्सा मानकर उसने दिल से नहीं लगाया और सहज भाव से सबसे प्रेम पूर्वक मिलकर जिंदगी की शुरुआत करने लगी। वहां भी  बहुत बड़ा परिवार नहीं था। प्रधान, उनकी पत्नी, दो बेटे और एक अविवाहित बेटी। कुछ महीने तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा पर ना जाने प्रधान का हृदय परिवर्तन कैसे हो गया। एक उम्रदराज आदमी किसी के कहे सुने में आ जाए, यह बात समझ में नहीं आती पर कहते हैं कि गांव में दूसरे घरों में जब लड़कों की शादी में दहेज आने लगा तो प्रधान का मन डोल गया। अभया की अनुपस्थिति में घर में पंचायत बैठी और सभी को लगा कि विवाह में दहेज की मांग ना करके उन्होंने उस वक्त अपनी साख तो बना ली परंतु नुकसान करा लिया और अपने गांव में नाक नीची हो गई।

बस फिर क्या था ! अभया के प्रति उन सब के व्यवहार में बदलाव आने लगा जिसे वह  खुद भी महसूस करने लगी थी। उपेक्षा का दौर शुरू होकर अत्याचार की हद तक पहुंच गया। उसने इस विषय में जानना चाहा लेकिन कोई भी प्रतिउत्तर नहीं मिला। विकास स्वयं तो उसे परेशान नहीं करता परंतु घर के और सदस्य कुछ भी कहे तो वह मूकदर्शक सा बना रह जाता। मानो गोबर का कोई गणेश हो। अभया उससे कह-कह कर थक हार गई पर उस पत्थर की मूर्ति में कोई हलचल नहीं हुई।

अभया को राधा का सहारा ही बाकी था अब। राधा पड़ोस में रहने वाली विकास की रिश्ते की बहन लगती थी। वह अभया की बहुत बड़ी प्रशंसक थी और उसकी सुख दुख की सच्ची साथी भी‌। जब अभया ने उसे अपने कष्टों के बारे में बताया और आगे पढ़ने की चाह ज़ाहिर की तो राधा को बहुत खुशी हुई। राधा एक पढ़ी-लिखी और समझदार युवती थी जो शहर में जाकर उच्च शिक्षा हासिल करके गांव वापस आई थी और स्वरोजगार के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित कर रही थी। उसने अभया के लिए शहर से कुछ पाठ्य सामग्री मंगवा कर उसे दे दी। अपने खाली समय में अभया बस पढ़ने लगी। उसने अपने माता-पिता से भी अपनी दुविधा का हल्का सा जिक्र किया था मगर ज़्यादा नहीं क्योंकि वे उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी। उनकी और भी जिम्मेदारियां थी।

  लगन की एक सुनहरी डोर पकड़ कर वह आगे बढ़ रही थी। राधा की दी हुई  किताबों में से एक प्रेरणादायक सूक्तियों से भरी हुई पुस्तक भी थी जिसमें मिशेल ओबामा का एक प्रेरणादायक कथन था। जिसका सार कुछ इसी से मिलता जुलता था,’जो लोग तुम्हें जीवन में नीचा दिखाते हैं उनसे दूर रहो। अपनी काबिलियत को पहचानो। अच्छे रिश्तों में बंधों। ये आपके आत्मसम्मान को चोट नहीं पहुंचाते हैं और आपके लिए खुशहाल होते हैं।’ इसी सूत्र को लेकर उसने जीवन में आगे बढ़ने का संकल्प लिया।

उन सभी लोगों की वह काफी सेवा करती थी मगर फिर भी परिवार वालों के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया। वह मानती थी कि आत्महत्या करने या लटका दिए जाने से बेहतर है समय रहते अपना जीवन बचा लेना चाहिए क्योंकि अन्याय अब हद से बाहर हो चला था। इस बार उसने विकास से तटस्थ होकर बात करने की ठानी। वह मति मूढ़ ना तो अपने परिवार वालों को समझाने को राजी था और ना ही अभया से तलाक लेना चाहता था। उसके मन में क्या था। यह अभया कभी जान नहीं पाई।

आज उसने निश्चय कर लिया था कि अब वह इस अंधेरे में ज़्यादा देर नहीं रहेगी और रोशनी की तलाश में निकलेगी।

अगली सुबह उसने अपना थोड़ा सा सामान लिया और चल दी एक अनजान सफर में। साथ में थीं तो उसकी किताबें, राधा के द्वारा दी गई कुछ आर्थिक मदद और इन सबसे बढ़कर राधा की अमूल्य नसीहतें। शहर में पहुंचकर राधा के बताए नंबर पर उसने फोन किया जो अजय नाम के किसी ब्रोकर का था। अजय  एक नेक दिल इंसान था। उसने अपने धंधे से ऊपर इंसानियत को जगह दी और अभया को एक कमरे का फ्लैट दिलवा दिया जो खुद अजय का ही अपना था। आवश्यकता पड़ने पर मदद का आश्वासन भी उसने दिया क्योंकि अभया शहर के वातावरण से अनजान थी।
अब यह कमरा, ये किताबें ही अभया की जिंदगी हो गई थी। हां आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए दिन में  दो घंटे ऑनलाइन क्लास लेने लगी थी। कुछ देर पुस्तकालय में व्यतीत कर प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आवश्यक सामग्री जुटाती थी।
और अब इधर दो प्रयासों के बाद वह इंटरव्यू तक पहुंची थी और परिणाम की प्रतीक्षा में थी। आखिरकार, आज वह शुभ घड़ी आ ही गई थी। अपनी रैंक के अनुसार उसे भारतीय पुलिस सेवा में नियुक्ति मिलनी तय थी।


उसने आंखें मूंद ली। वह खुद को खाकी में तैनात देख रही थी और उसके कंधे पर स्टार लगे थे। अचानक क्रोध का भाव उसके मन में जन्मा जो उन सब लोगों को सजा देना चाहता था, जिन्होंने उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया था। परंतु प्रसन्नता की उष्मा ने प्रतिशोध के इस भाव को भस्म कर दिया। और वह ज़ल्द ही संभल गई क्योंकि ऐसा आचरण उसके पेशे की मर्यादा के विरुद्ध होता। उसने यह भी महसूस किया कि अगर वे लोग ना होते तो आज शायद वह यहां तक पहुंचने का प्रयास ही नहीं करती। दुश्मन भी कभी-कभी अनजाने में हमारी सहायता कर बैठते हैं। उसने परिणाम की ओर दृष्टि डालते हुए फैसला किया कि जितनी भी महिलाएं घर परिवार से प्रताड़ित होंगी, वह उन सब को न्याय दिलवायेगी।

उसके चेहरे पर एक मुस्कान फैली और उसने देखा कि ओस की अधिकांश बूंदें अब तक निढाल हो चुकी थी पर कुछ अभी भी पत्तों पर टिकी अपने अस्तित्व को बचाने में कामयाब रही थी।

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