गृहलक्ष्मी की कहानियां - चल री सजनी
Stories of Grihalakshmi

गृहलक्ष्मी की कहानियां – गूंजती ढोलक की थाप, हंसती-गाती-ठुमकती महिलाएं, शहनाई की स्वर-लहरियां आकाश को भेदती आतिशबाजी और सबसे निःस्पृह बैठी सुधा। एक क्षण के लिए भी किंचित हंसी उसके चेहरे पर नहीं आती है। फेरों का कार्यक्रम निपट गया। दूल्हा और बाराती भी जनवासे में चले गये। मां ने सुधा का पूजा वाले कमरे में लिटा दिया। सो जा बेटा थोड़ी देर। कल पूरे दिन यात्रा करनी है।

सुधा सोने की कोशिश करने लगी, मगर एकांत पाकर उसका रूदन फूट पड़ा। सारी पीड़ा नयनों से बहने लगी, मगर एकांत पाकर उसका रूदन फूट पड़ा। सारी पीड़ा नयनों से बहने लगी। वह आज जी भरकर रोना चाहती थी। शायद आज के बाद वह उसको भुला सके। अशोक की यादें साये की तरह उससे लिपटी थीं। सारे स्मृति चित्र एक-एक कर उसके सामने उभरने लगे।

उसकी दीदी की ननद की शादी थी। वह चार-पांच दिन पूर्व ही वहां पहुंच गयी। हर तरफ हंसी-खुशी का माहौल था। वह तो जब से यहां आयी थी, लोग उसे परेशान करते रहते थे। रिश्ता जो ऐसा है। दीदी के देवर, जीजाजी के दोस्त जो भी आता उससे हंसी-मजाक करके ही जाता । वह कुछ उत्तर नहीं देती। शरमाकर अंदर भाग जाती।

बारात आने वाली थी। सुधा जैसी ही तैयार होकर निकली। लोगों ने छेड़छाड़ शुरू कर दी। कोई उसे लाल दुपट्टे वाली कह रहा था। कोई उसकी आंखें सुरमेदानी बता रहा था। लज्जा से उसका चेहरा लाल हुआ जा रहा था। वह फिर अपनी दीदी के कमरे में घुस गयी। अचानक उसकी नजर बरामदे में बैठे एक लड़के पर पड़ी। वह सुन्दर-सजीला युवक चोरी-चोरी उसे देखे जा रहा था। वह उन सारे छिछोरे युवकों से अलग लग रहा था।

रात भर कार्यक्रम चलते रहे। वह बार-बार सुधा को देखत रहा। सुबह पता चला कि वह दीदी की पड़ोसन का भाई है और हमारे ही समाज का है। 
उसी दिन उसने सुधा के पिताजी से सुधा का रिश्ता मांग लिया। उसका अपना जमा हुआ व्यवसाय था। मां-पिताजी चल बसे थे। रिश्ते के नाम पर उसके यही एक बहन थी। वह जल्दी से जल्दी सुधा को दुल्हन बनाकर अपने घर ले जाना चाहता था।

इधर सुधा के पिताजी सुधा की बड़ी बहन की शादी कर चुके थे। उन्होनें शादी से साफ इंकार कर दिया। अशोक की बहन के अधिक जोर देने पर एक वर्ष बाद शादी करने की बात पर वे राजी हुए। अशोक तो जैसे रात भर में ही सुधा को अपनी बना चुका था। अतः उसने भी सहमति दे दी। सुधा अशोक की हो गयी थी। वह हर समय उसके सपनों में खोई रहती थी। दोनों परिवारों में सम्पर्क बना रहा। वर्ष बीतने पर अशोक की बहन गोद भरने आ गयी। अशोक भी आया था।

पंडित बुलाकर शादी की तिथि निकलवायी गयी। आठ से पूर्व कोई शुभ तिथि दोनों के नाम से नहीं निकल रही थी। अशोक की आंखों में गहरी उदासी उतर आयी। सुधा उस उदासी को बूंद-बूंद पी जाना चाहती थी, मगर अशुभ मुहूर्त में अशोक भी विवाह नहीं करना चाहता था। आठ माह बाद विवाह की तिथि निश्चित हुई।

एक बार फिर अशोक बिना कुछ कहे, सब कुछ कह कर चला गया। अब उसके फोन भी आते रहते। जाने कैसे-कैसे सपने सुधा ने बुन लिये थे अशोक के साथ! सुधा मेरी प्रतीक्षा का अन्दाजा तुम नहीं लगा सकती हो। मां के मरने के बाद मेरा घर खण्डहर बन गया है और मैं एक भूत। मां जब सो जाती, सुधा चुपके से उठती, अलमारी खोलती। अशोक की पहनाई लाल चुड़ियां पहनती, सितारों वाला दुपट्टा ओढ़ती और फिर अपने हाथों को स्वयं चूम लेती। फिर धीमे से सब उतारकर रख देती और सो जाती।

समय पंख लगाकर उड़ गया। शादी का शुभ दिन नजदीक आ पहुंचा। शादी से पांच दिन पूर्व सगाई लेकर उसके घर वाले चले गये। उसे हरी चूड़ियां पहना दी गयीं और सुन्दर लाल साड़ी में उसे लपेट दिया गया।

घर मेहमानों से भरने लगा। शादी के तीन दिन बचे थे। उसे आज हल्दी लगायी जाने वाली थी। सुबह ही टेलीफोन की घंटी घरघराई और क्षण भर में उसकी सारी खुशियां छीन ले गयी। उधर से किसी की आवाज थी-अशोक एक्सपायर्ड मां बेहोश हो गयी। पिताजी जहां के तहां खड़े रहे गये। सुधा कमरे में दौड़ गयी। वह एक-एक कर चूड़ी तोड़ने लगी। जब मां को होश आया तो उन पर दुनियादारी सवार थी। बेटी, अभी तेरा कुछ नहीं बिगड़ा है। अभी तेरे सात फेरे उसके साथ नहीं हुए हैं। तू उसके नाम की चूड़ी मत तोड़ना।

मां ने अपने हाथ से सुधा की चूड़ियां उतार दीं। उसकी पुरानी सलवार-कमीज उसके हाथ में पकड़ा दी। ले सुधा पहन लें। जो हो गया, सो हो गया। तू कुंवारी की कुंवारी है। थोड़ी देर में औरतों की सांसारिकता शुरू हो गयी।

हमारी सुधा तो बड़ी भाग्यशाली है। बच गयी है। तीन दिन बाद यह हादसा होता तो लड़की की जिन्दगी बर्बाद हो जाती । कुंवारी कन्या सहस्त्रवर और न जाने क्या-क्या कहती रहीं ये सब। मेहमान चले गये। मां ने घर में मातम नहीं मनाया। ऐसा करने से उनकी बेटी पर कंलक लग जाता है। सुधा ने आठ दिन कुछ नहीं खाया। रात-दिन आंखों से धारा बहती रहती। मां ने एक भी आंसू नहीं बहाया, लेकिन सुधा पूरी तरह टूट गयी थी। वह दुनिया के लिए कुंवारी थी, मगर उसका मन दो सालों से अशोक का था। अशोक की याद आकर हर रात उसे थपथपाकर सुलाती थी। आखिर कैसी थी वह प्रतीक्षा, जिसे आंखों में लिए अशोक चला गया था।

एक माह बाद ही उसकी शादी प्रमोद से तय कर दी गयी। सुधा इस शादी को स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी। प्रमोद में उसे अशोक की तस्वीर ही दिखती थी। मां की आवाज ने उसे चैंका दिया। उठो सुधा, विदाई का समय हो रहा है। सुधा मां से लिपट, फफक-फफक कर रो पड़ी। मां, दो वर्षों से मेरी विदाई के लिए इंतजार करने वाला कहां चला गया? मां ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया। ऐसे शुभ मुहुर्त में अशुभ बातें नहीं करते। एक बार फिर सुधा ने अपनी पीड़ा को खुद पी लिया। विदाई की तैयारी होने लगी।