पूरी दुनिया में हैल्थकेयर सेवा का आधार ही विश्वास होता है और टीकाकरण किसी बच्चे की जिंदगी में इसी विश्वास का पहला चरण है। लेकिन यह क्षेत्र आज इतना मैला हो चला है कि विश्वास तो क्या, डॉक्टर का पेशा भी इसके घेरे में आ गया है। यहां तक कि नवजात बच्चों तक को भ्रष्टाचार ने नहीं छोड़ा है। बच्चों के टीकाकरण को भी लोगों ने एक बड़ा व्यवसाय बना लिया है, जिसमें बच्चों के डॉक्टर, टीके बनाने वाली देसी-विदेशी कंपनियों के अलावा अनेक बिचौलिये शामिल हैं। जब व्यवस्था को ठीक करने की बात आती है तो सभी बगलें झांकने लगते हैं और यह रोजमर्रा की ही तरह एक आम आदत बन जाती है। लेकिन कभी-कभी ऐसी कश्ती में एक हल्की सी दरार पैदा हो जाती है जो पूरी की पूरी कश्ती को डुबो सकती है। पिछले दिनों एक ईमानदार डॉक्टर ने ऐसी ही एक आवाज उठाई, जिसे इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स ने दबाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन इससे भारत की एक और दूषित व्यवस्था- बच्चों की टीकाकरण योजना की कलई खुल गई।
 
हजारों करोडों का तंत्र
दरअसल यह भारतीय और मल्टीनेशनल कंपनियों का हजारों करोडों मूल्य का एक पूरा तंत्र है जो टीकाकरण के पैसे पर ही फल-फूल रहा है। इन्होंने बच्चों के अनेक डॉक्टरों को भी अपने साथ मिला रखा है जो कीमती टीकों को बाजार में बढ़ावा देते हैं, जिनमें से कुछ की तो बच्चों को जरूरत ही नहीं होती। नवजात बच्चों के स्वास्थ्य की कीमत पर बाल चिकित्सक अनजान और भोली-भाली जनता से तो मनमाना पैसा वसूलते ही है, इन कंपनियों की ओर से भी उन्हें मोटी कमाई होती है।
 
टीकाकरण का कमाई तंत्र
 

बाजार में नये टीके उतारने का निर्णय भी इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स ही करती है, इसलिए इसके ज्यादातर सदस्य एक ही पक्ष में रहते हैं और टीकाकरण का कमाई तंत्र यूं ही चलता रहता है। डॉक्टरों के सुझाव में कुछ टीके ऐसे भी होते हैं जो जिस बीमारी के लिए लगवाए जाते हैं, वो बीमारी इस देश में होती ही नहीं है। उदाहरण के तौर पर यलो फीवर के टीके को ही लें। दिल्ली के एक जाने पहचाने डिस्ट्रीब्यूटर का कहना है कि भारत में करीब 2000 यलो फीवर के टीके की बिक्री होती है। बता दें कि यलो फीवर का भारत में आज तक एक भी मामला सामने नहीं आया है और यह सिर्फ अफ्रीका और लेटिन अमरीका में ही होता है। यह टीका सिर्फ ऐसे लोगों को लगवाने की जरूरत होती है जो विदेश जा रहे हो।

एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स
इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स ही किसी भी नये टीके को बाजार में उतारने के लिए अनुशंसा देती है और जिम्मेदार होती है और इसके बाद यह देश भर के सभी बाल रोग विशेषजों के लिए एक बेंचमार्क बन जाता है, जिसका सभी पालन करते हैं। यहां तक कि केंद्र सरकार भी अपने किसी राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम की योजना बनाने से पहले इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स से सलाह- मशविरा करती है।
 
रिवोल्यूशन पार्लियामेंट तक पहुंचा
इस कमाई तंत्र के खिलाफ यह रिवोल्यूशन अब पार्लियामेंट तक भी पहुंच गया है। पिछले मार्च महीने में दौसा के सांसद हरीश मीना ने लोकसभा में यह मुद्दा भी उठाया था। इसका जवाब देते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने माना कि सरकार को इस भ्रष्ट तंत्र के बारे में जानकारी है, क्योंकि इस बारे में शिकायतें मिल रही हैं और अब आने वाले समय में सरकार एसोसिएशन की सभी अनुशंसाओं को हरी झंडी नहीं देगी। नड्डा ने यह भी बताया कि यूनिवर्सल इम्युनाइजेशन प्रोग्राम के तहत आने वाले सभी टीकों को सरकार सभी सरकारी स्वास्थ्य सुविधा केंद्रों पर मुफ्त उपलब्ध करा रही है। हालांकि इसके बावजूद इस मामले में स्पष्ट दिशानिर्देशों या नियमों की कमी को लेकर कोई नये निर्देश या नया कदम उठता नजर नहीं आ रहा है।
 

 

टीकों की बढ़ती कीमत
भारत में हर साल 270 लाख नवजात शिशुओं का टीकाकरण कराया जाता है, जिनमें से 10 फीसदी यानी 27 लाख शिशुओं का टीकाकरण निजी सेक्टर के अस्पतालों-क्लीनिकों में होता है। ज्यादातर टीके विदेशी कंपनियां बनाती हैं और वह सेल्स बढ़ाने के मकसद से असीमित संसाधन के बल पर अपने प्रोडक्ट को डॉक्टर और डिस्ट्रीब्यूटर्स तक फैलाना चाहते हैं। इससे न सिर्फ टीकों की कीमत बढ़ती है, बल्कि यह सुरक्षित है या नहीं, जरूरी है या नहीं, इन महत्वपूर्ण मुद्दों से भी ध्यान हटा दिया जाता है। ऐसे में जब प्रतिष्ठित संस्थाएं या डॉक्टर इसकी अनुशंसा करते हैं, तो वे डॉक्टर के वेश में सिर्फ उन विदेशी कंपनियों के सेल्समैन होते हैं। 
 
महत्वपूर्ण मुद्दों से हटता ध्यान
पूरे देश में सरकारी यूनिवर्सल इम्युनाइजेशन प्रोग्राम के तहत 5 साल तक की उम्र के बच्चों को आमतौर पर कुछ खास बीमारियों के लिए 6 टीके लगाये जाते हैं और इसके अलावा 3 अन्य राज्य विशेष के टीके अलग हैं, जबकि दूसरी ओर निजी डॉक्टर आपके बच्चे के लिए 25 टीके लगाने की सलाह दे सकता है। इन टीकों का मूल्य कोई भी शहरी दम्पति अपने बच्चे के स्वास्थ्य की खातिर वहन कर लेता है। आमतौर पर इन टीकों की कीमत इनकी असली कीमत की तीन गुनी होती है और इसका एकमात्र कारण डिस्ट्रीब्यूटर से लेकर ग्राहकों के बीच की कडिय़ों की कमाई ही है।
 

 

तरह-तरह के उपहार
इन टीकों को एप्रूव करने के एवज में आईएपी को देशी और विदेशी कंपनियों की ओर से विदेश यात्रा, गोल्ड कॉइन, लाखों-करोड़ों के उपहार या दान के रूप में तरह-तरह की भेंट मिलती हैं। ऑनलाइन रिकॉर्ड बताते हैं कि वर्ष 2016 में एसोसिएशन को 5.5 करोड़ की कमाई हुई जहां इसके वित्तीय कागजात में लाभ का कोई ब्यौरा नहीं दिया गया था। इन गैरजरूरी टीकों को लगवाने के लिए डॉक्टरों को भी खासा फायदा दिया जाता है। जैसे आम हीमोफिलस इंफ्लुएंजा टाइप बी (Hib) कंजूगेट्स टीका, जिसका बाजार मूल्य 426 रुपये है, इसे डॉक्टरों को मात्र 251 रुपये में सप्लाई किया जाता है, यानी इस हर टीके पर डॉक्टर को 69 रुपये का लाभ दिया जाता है।
 
ट्रांसपोर्ट में कोल्ड चेन
टीकों को लाने- ले जाने के लिए प्रयोग होने वाले ट्रांसपोर्ट में कोल्ड चेन का इस्तेमाल एक दूसरा मुद्दा है, जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। ज्यादातर टीकों को 2-8 डिग्री सेल्सियस तापमान में रखे जाने की जरूरत होती है और अगर इन्हें इस खास तापमान में न रखा गया तो यह खराब हो सकते हैं। लेकिन प्राइवेट सेक्टर में कहां तक इस पर अमल हो रहा है, यह बात संदेह में है। अगर आप दिल्ली के चांदनी चौक-भागीरथ पैलेस जाकर दवाओं के बाजार के हालात देखें तो पाएंगे कि ज्यादातर टीके साधारण ट्रक से उतारे जा रहे हैं।
 
क्या सही क्या गलत

ऐसे में आपके बच्चे को लगाए जाने वाले कौन से टीके सही हैं और कौन से टीके बर्बाद हो चुके हैं, यह पता लगाना आसान नहीं है। इसका एक तरीका डॉक्टर बताते हैं कि टीके के लेबल से पता लगाया जा सकता है कि यह सही है या नहीं और इसके खराब होने की स्थिति में इसे कंपनी को वापस कर दिया जाता है। बड़े शहरों के दवा विक्रेता तो इस बात से वाकिफ हैं और टीकों को फ्रिज में रखते हैं लेकिन छोटे शहरों में ऐसा भी नहीं है।

खास दिशा-निर्देश की कमी
यहां तक कि हमारे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से भी टीकों को लागू करवाने के लिए प्राइवेट सेक्टर को किसी खास तरह के दिशा-निर्देश नहीं दिये गये हैं। नई गाइडलाइंस के अनुसार कोई भी टीका तभी देश में शुरू किया जाएगा, जब उस पर 60 डॉक्टर स्टडी कर अपनी रिपोर्ट डीजीसीआई को देंगे और किसी भी दूसरे देश में इसको लाइसेंस मिला हुआ होगा। इसके अलावा इन नियमों में देश में उस बीमारी के होने न होने और उसके असर से संबंधित किसी निर्देश की जरूरत नहीं समझी गई है। 
 
(ज्यादातर आंकड़े और तथ्यों को आउटलुक से साभार लिया गया है) 
 
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