mitti ke bartan
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Utensils – अपनी सभ्यता की कहानी जानने की उत्सुकता भला किस में नहीं पाई जाती? दुनियाभर के लोगों ने अपनी-अपनी सभ्यता को जानने-समझने की कोशिश की है। किसी भी देश अथवा क्षेत्र की पुरानी सभ्यता को जानने के लिए कई चीजें जरूरी होती हैं। ऐसी ही चीजों में मिट्टी के पुराने बरतन, खिलौने, पुराने भवन, पुराने सिक्के और पुरानी मुर्तिया आदि होती हैं। हमें अपने देश भारत की पारंपरिक सभ्यता को जानने के लिए इन चीजों के बारे में जानना जरूरी है। आज हम आपको अपने देश के मिट्टी के पुराने बर्तनों के विषय में बतलाएंगे।

जिन बर्तनों में आज हम खाते-पीते हैं, वे ज्यादातर स्टेनलेस स्टील के होते हैं। अब से चालीस पचास साल पहले ये बर्तन पीतल और कसकुट के हुआ करते थे। उससे भी हजारों साल पहले मिट्टी के बर्तन हुआ करते थे। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता गया, वैसे-वैसे मनुष्य के काम में आने वाली सभी चीजों का रूप भी बदलता गया और इसी तरह बर्तनों का रूप भी बदलता रहा। आज भी शादी-ब्याह और दावतों के अवसर पर हम पत्तल, कुल्हड़ और सकोरों में लोगों को खाते-पीते देखते हैं। सो मिट्टी के बर्तन हजारों साल से इस्तेमाल किए जाते रहे हैं। यह दूसरी बात है कि मिट्टी के इन बर्तनों का हर युग में अपना आकार और रंग-रूप बदलता रहा है। समय के क्रम पर बतलाया जाए तो हमारे देश के मिट्टी के ये बर्तन मोटे तौर पर चार वर्गों में गिनाए जा सकते हैं। पहला वर्ग लाल-काले बर्तनों का माना जाता है, दूसरे में गेहूंए रंग के बर्तन आते हैं, तीसरा वर्ग भूरे रंग के बर्तनों का तथा चौथा उत्तर क्षेत्रीय काले चमकदार बर्तनों का है।

पहला वर्ग लाल-काले बर्तन

सिंधु घाटी की सभ्यता हमारे देश की सभ्यता का प्रारंभ काल माना जाता है। आज से लगभग चार-पांच हजार साल पहले सिंधु नदी की घाटी में दो पुराने नगर थे, जिनके खंडहरों को आज हम हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के नाम से जानते हैं। जब भारत का विभाजन हुआ, तब ये दोनों प्राचीन स्थान पाकिस्तान के हिस्से में चले गए, जिससे हमारे देश के इतिहासकारों ने फिर से उस सभ्यता की खोज शुरू कर दी। नतीजा यह निकला कि राजस्थान में कालीबंगा, पंजाब में रोपड़ और गुजरात में लोथल तथा रंगपुर में उसी सभ्यता के अवशेष पाए गए। अन्य कई स्थानों से सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेष पाए गए। इनके अलावा भी अन्य कई स्थानों से सिंधु घाटी की सभ्यता को दर्शाने वाली बहुत ही चीजें बाहर आईं जैसे किले, भवनों की नींवें, सड़कें, कुएं, स्नानागार, सोने-तांबे और पत्थर के जेवर, औजार, पत्थर खिलौने आदि-आदि। इनके साथ-साथ मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तन और उनके हजारों टुकड़े भी मिले। इन बर्तनों में अनाज रखने के लिए बड़े-बड़े कुठिला, पानी के लिए बड़े-बड़े मटके, सुराही, मर्तबान, कुल्हड़, कटोरे, प्याले, तश्तरियां, तालियां और नांदे थीं। आधे-आधे इंच के छोटे-छोटे बर्तन भी मिले हैं, जिनमें शायद इत्र रखा जाता होगा, बड़े बर्तनों के लिए ढक्कन भी मिले हैं। कुछ बर्तन टोंटीदार बनाए जाते थे, जिनमें गोल हत्थे या हैंडिल लगाए जाते थे। छोटे बर्तन चाक पर और बड़े बर्तन हाथ से बनाए जाते थे फिर कुछ बर्तनों पर काले रंग से भांति-भांति की चित्रकारी करते थे।

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सिंधु घाटी के इन बर्तनों पर कई प्रकार के पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों के चित्र पाए गए हैं। पेड़-पौधों में पीपल, नीम, ताड़, खजूर, केला और बाजरा के पेड़ चित्रित किए गए हैं। पशु-पक्षियों में बकरे, हिरण, गाय-बछड़ा, मोर, मुर्गा, मछली, कछुआ आदि हैं। एक बर्तन पर एक मछुहारा बहंगी पर लटकाए, दो जालों में शायद मछलियां ढोकर ले जा रहा है। एक चित्रण में एक हिरणी और दूसरे में एक गाय अपने बछड़े को दूध पिलाती हुई दिखाई गई है।

सिंधु घाटी के बर्तनों पर ठप्पे से भी डिजाईन बनाए जाते थे। एक बर्तन पर ठप्पे से एक नाव बनाई गई है। सिंधु घाटी के बर्तनों को ही विद्वान पहले वर्ग का मानते हैं। इन्हें लाल और काले बर्तन इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इनका रंग लाल होता था और इन पर चित्रण प्राय: काले रंग से किया जाता था। इस प्रकार के बर्तनों का चलन आज से चार-साढ़े चार हजार साल पहले तक था।

दूसरा वर्ग- गेरूए बर्तन

बाद का युग गेरूए बर्तनों का था। इन बर्तनों पर चित्रकारी नहीं पाई गई है। इनका इस्तेमाल आज से लगभग तीन-चार हजार साल पहले तक था। ऐसे बर्तन ज्यादातर उत्तर प्रदेश में गंगा घाटी में पाए गए हैं। अधिक दिनों तक धरती में दबे रहने के कारण ये बर्तन बड़े जर्जर हो गए हैं। हाथ लगाते ही इनका गेरूआ रंग हाथ में लग जाता है। इसी कारण इन बर्तनों के केवल टुकड़े ही मिल पाए हैं। पूरे-पूरे बर्तन नहीं मिल सके हैं। ऐसी स्थिति में हमें उनके सही आकार की भी कोई जानकारी नहीं मिल पाई है।

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तीसरा वर्ग- भूरे रंग के चित्रित बर्तन

इस वर्ग के बर्तन भूरे या राख रंग के होते थे। इन्हें चाक पर बनाया जाता था और आवे में पकाया जाता था। भूरे रंग से रंगने के बाद उनके ऊपर काले या सफेद रंग से चित्रकारी की जाती थी। इस प्रकार से बनाए गए बहुत से प्याले और तश्तरियां पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से मिली हैं। इनका समय अब से लगभग ढाई-तीन हजार साल पहले माना जाता है। भूरे रंग के चित्रित इन बर्तनों को कुछ विद्वान आर्यों के बर्तन मानते हैं, जो सिंधु घाटी सभ्यता को समाप्त करके पहले पंजाब में फिर गंगा घाटी में आकर बस गए थे।

चौथा वर्ग- चमकदार काली पॉलिश वाले बर्तन

चूंकि इन्हें ज्यादातर उत्तर भारत में ही पाया जाता है, इसलिए इन्हें उत्तर क्षेत्रीय काली पॉलिश वाले बर्तन कहा जाता है। चाक पर बनाए गए, ये बर्तन बहुत पतले और चिकने होते थे। काला रंग होने पर भी उन पर सुनहरी और रूपहली झलक पाई जाती थी। सच तो यह है कि भारत में बने मिट्टी के बर्तनों में, ये सुंदर थे। ऐसे बर्तन भारत के प्राय: सभी क्षेत्रों से मिले हैं। इस वर्ग के बर्तनों में भी प्याले और तश्तरियां ही मुख्य थीं। हां, कहीं-कहीं हांडियों के होने के भी संकेत मिले हैं। इन बर्तनों का चलन आज से लगभग ढाई हजार साल पहले शुरू हुआ था, जब गौतम बुद्ध पैदा हुए थे और लगभग चार-पांच सौ साल तक इनका इस्तेमाल बराबर किया जाता रहा था। इसके बाद बर्तन बनाने की कला में गिरावट आई। धीरे-धीरे वे फिर से मोटे बनाए जाने लगे और उन पर चमकदार पॉलिश के स्थान पर केवल रंग लगाया जाने लगा। ठप्पे से डिजाइन तो बनाए जाते रहे, पर चित्रकारी का चलन लगभग समाप्त सा हो गया। 

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